श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 1-8

द्वितीय स्कन्ध: सप्तम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद


भगवान् के लीलावतारों की कथा

ब्रह्मा जी कहते हैं- अनन्त भगवान् ने प्रलय के जल में डूबी हुई पृथ्वी का उद्धार करने के लिये समस्त यज्ञमय वराह शरीर ग्रहण किया था। आदिदैत्य हिरण्याक्ष जल के अंदर ही लड़ने के लिये उनके सामने आया। जैसे इन्द्र ने अपने वज्र से पर्वतों के पंख काट डाले थे, वैसे ही वराह भगवान् ने अपनी दाढ़ों से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। फिर उन्हीं प्रभु ने रुचि नामक प्रजापति की पत्नी आकूति के गर्भ से सुयज्ञ के रूप में अवतार ग्रहण किया। उस अवतार में उन्होंने दक्षिणा नाम की पत्नी से सुयम नाम के देवताओं को उत्पन्न किया और तीनों लोकों के बड़े-बड़े संकट हर लिये। इसी से स्वायम्भुव मनु ने उन्हें ‘हरि’ के नाम से पुकारा।

नारद! कर्दम प्रजापति के घर देवहूति के गर्भ से नौ बहिनों के साथ भगवान् ने कपिल के रूप में अवतार ग्रहण किया। उन्होंने अपनी माता को उस आत्मज्ञान का उपदेश किया, जिससे वे इसी जन्म में अपने हृदय के सम्पूर्ण मल- तीनों गुणों की आसक्ति का सारा कीचड़ धोकर कपिल भगवान् के वास्तविक स्वरूप को प्राप्त हो गयीं। महर्षि अत्रि भगवान् को पुत्र रूप में प्राप्त करना चाहते थे। उन पर प्रसन्न होकर भगवान् ने उनसे एक दिन कहा कि ‘मैंने अपने-आपको तुम्हें दे दिया।’ इसी से अवतार लेने पर भगवान् का नाम ‘दत्त’ (दत्तात्रेय) पड़ा। उनके चरणकमलों के पराग से अपने शरीर को पवित्र करके राजा यदु और सहस्रार्जुन आदि ने योग की, भोग और मोक्ष दोनों ही सिद्धियाँ प्राप्त कीं।

नारद! सृष्टि के प्रारम्भ में मैंने विविध लोकों को रचने की इच्छा से तपस्या की। मेरे उस अखण्ड तप से प्रसन्न होकर उन्होंने ‘तप’ अर्थ वाले ‘सन’ नाम से युक्त होकर सनद, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार के रूप में अवतार ग्रहण किया। इस अवतार में उन्होंने प्रलय के कारण पहले कल्प के भूले हुए आत्मज्ञान का ऋषियों के प्रति यथावत् उपदेश किया, जिससे उन लोगों ने तत्काल परम तत्त्व का अपने हृदय में साक्षात्कार कर लिया। धर्म की पत्नी दक्ष की कन्या मूर्ति के गर्भ से वे नर-नारायण के रूप में प्रकट हुए। उनकी तपस्या का प्रभाव उन्हीं के जैसा है। इन्द्र की भेजी हुई काम की सेना अप्सराएँ उनके सामने जाते ही अपना स्वभाव खो बैठीं। वे अपने हाव-भाव से उन आत्मस्वरूप भगवान् की तपस्या में विघ्न नहीं डाल सकीं।

नारद! शंकर आदि महानुभाव अपनी रोष भरी दृष्टि से कामदेव को जला देते हैं, परंतु अपने-आपको जलाने वाले असह्य क्रोध को वे नहीं जला पाते। वही क्रोध नर-नारायण के निर्मल हृदय में प्रवेश करने के पहले ही दर्द के मारे काँप जाता है। फिर भला, उनके हृदय में काम का प्रवेश तो हो ही कैसे सकता है। अपने पिता राजा उत्तानपाद के पास बैठे हुए पाँच वर्ष के बालक ध्रुव को उनकी सौतेली माता सुरुचि ने अपने वचन-बाणों से बेध दिया था। इतनी छोटी अवस्था होने पर भी वे उस ग्लानि से तपस्या करने के लिये वन में चले गये। उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान् प्रकट हुए और उन्होंने ध्रुव को ध्रुवपद का वरदान किया। आज भी ध्रुव के ऊपर-नीचे प्रदक्षिणा करते हुए दिव्य महर्षिगण उनकी स्तुति करते रहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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