श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 1-16

सप्तम स्कन्ध: द्वितीयोऽध्याय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


हिरण्याक्ष का वध होने पर हिरण्यकशिपु का अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना

नारद जी ने कहा- युधिष्ठिर! जब भगवान् ने वराहावतार धारण करके हिरण्याक्ष को मार डाला, तब भाई के इस प्रकार मारे जाने पर हिरण्यकशिपु रोष से जल-भुन गया और शोक से सन्तप्त हो उठा। वह क्रोध से काँपता हुआ अपने दाँतों से बार-बार होठ चबाने लगा। क्रोध से दहकती हुई आँखों की आग के धुएँ से धूमिल हुए आकाश की ओर देखता हुआ वह कहने लगा।

उस समय विकराल दाढ़ों, आग उगलने वाली उग्र दृष्टि और चढ़ी हुई भौंहों के कारण उसका मुँह देखा न जाता था। भरी सभा में त्रिशूल उठाकर उसने द्विमूर्धा, त्र्यक्ष, शम्बर, शतबाहु, हयग्रीव, नमुचि, पाक, इल्वल, विप्रचित्ति, पुलोमा और शकुन आदि को सम्बोधन करके कहा- ‘दैत्यों और दानवों! तुम सब लोग मेरी बात सुनो और उसके बाद जैसे मैं कहता हूँ, वैसे करो। तुम्हें यह ज्ञात है कि मेरे क्षुद्र शत्रुओं ने मेरे परम प्यारे और हितैषी भाई को विष्णु से मरवा डाला है। यद्यपि वह देवता और दैत्य दोनों के प्रति समान है, तथापि दौड़-धूप और अनुनय-विनय करके देवताओं ने उसे अपने पक्ष में कर लिया है। यह विष्णु पहले तो बड़ा शुद्ध और निष्पक्ष था, परन्तु अब माया से वराह आदि रूप धारण करने लगा है और अपने स्वभाव से च्युत हो गया है। बच्चे की तरह जो उसकी सेवा करे, उसी की ओर हो जाता है। उसका चित्त स्थिर नहीं है। अब मैं अपने इस शूल से उसका गला काट डालूँगा और उसके खून की धारा से अपने रुधिरप्रेमी भाई का तर्पण करूँगा। तब कहीं मेरे हृदय की पीड़ा शान्त होगी। उस मायावी शत्रु के नष्ट होने पर, पेड़ की जड़ कट जाने पर डालियों की तरह सब देवता अपने-आप सूख जायेंगे। क्योंकि उनका जीवन तो विष्णु ही है।

इसलिये तुम लोग इसी समय पृथ्वी पर जाओ। आजकल वहाँ ब्राह्मण और क्षत्रियों की बहुत बढ़ती हो गयी है। वहाँ जो लोग तपस्या, यज्ञ, स्वाध्याय, व्रत और दानादि शुभ कर्म कर रहे हों, उन सबको मार डालो। विष्णु की जड़ है द्विजातियों का धर्म-कर्म; क्योंकि यज्ञ और धर्म ही उसके स्वरूप हैं। देवता, ऋषि, पितर, समस्त प्राणी और धर्म का वही परम आश्रय है। जहाँ-तहाँ ब्राह्मण, गाय, वेद, वर्णाश्रम और धर्म-कर्म हों, उन-उन देशों में तुम लोग जाओ, उन्हें जला दो, उजाड़ डालो’।

दैत्य तो स्वभाव से ही लोगों को सताकर सुखी होते हैं। दैत्यराज हिरण्यकशिपु की आज्ञा उन्होंने बड़े आदर से सिर झुकाकर स्वीकार की और उसी के अनुसार जनता का नाश करने लगे। उन्होंने नगर, गाँव, गौओं के रहने के स्थान, बगीचे, खेत, टहलने के स्थान, ऋषियों के आश्रम, रत्न आदि की खानें, किसानों की बस्तियाँ, तराई के गाँव, अहीरों की बस्तियाँ और व्यापार के केन्द्र बड़े-बड़े नगर जला डाले। कुछ दैत्यों ने खोदने के शस्त्रों से बड़े-बड़े पुल, परकोटे और नगर के फाटकों को तोड़-फोड़ डाला तथा दूसरों ने कुल्हाड़ियों से फले-फूले, हरे-भरे पेड़ काट डाले। कुछ दैत्यों ने जलती हुई लकड़ियों से लोगों के घर जला दिये। इस प्रकार दैत्यों ने निरीह प्रजा का बड़ा उत्पीड़न किया। उस समय देवता लोग स्वर्ग छोड़कर छिपे रूप से पृथ्वी में विचरण करते थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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