श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 1-16

प्रथम स्कन्ध: दशम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः दशम अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


श्रीकृष्ण का द्वारका-गमन

शौनक जी ने पूछा- धार्मिकशिरोमणि महाराज युधिष्ठिर ने अपनी पैतृक सम्पत्ति हड़प जाने के इच्छुक आततायियों का नाश करके अपने भाइयों के साथ किस प्रकार से राज्य-शासन किया और कौन-कौन-से काम किये, क्योंकि भोगों में तो उनकी प्रवृत्ति थी ही नहीं।

सूत जी कहते हैं- सम्पूर्ण सृष्टि को उज्जीवित करने वाले भगवान श्रीहरि परस्पर की कलहाग्नि से दग्ध कुरु वंश को पुनः अंकुरित कर और युधिष्ठिर को उनके राज्यसिंहासन पर बैठाकर बहुत प्रसन्न हुए। भीष्म पितामह और भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों के श्रवण से उनके अन्तःकरण में विज्ञान का उदय हुआ और भ्रान्ति मिट गयी। भगवान के आश्रय में रहकर वे समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वी का इन्द्र के समान शासन करने लगे। भीमसेन आदि उनके भाई पूर्ण रूप से उनकी आज्ञाओं का पालन करते थे।

युधिष्ठिर के राज्य में आवश्यकतानुसार यथेष्ट वर्षा होती थी, पृथ्वी में समस्त अभीष्ट वस्तुएँ पैदा होती थीं, बड़े-बड़े थनों वाली बहुत-सी गौएँ प्रसन्न रहकर गोशालाओं को दूध से सींचती रहती थीं। नदियाँ, समुद्र, पर्वत, वनस्पति, लताएँ और ओषधियाँ प्रत्येक ऋतु में यथेष्ट रूप से अपनी-अपनी वस्तुएँ राजा को देती थीं। अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर के राज्य में किसी प्राणी को कभी भी आधि-व्याधि अथवा दैविक, भौतिक और आत्मिक क्लेश नहीं होते थे।

अपने बन्धुओं का शोक मिटाने के लिये और अपनी बहिन सुभद्रा की प्रसन्नता के लिये भगवान श्रीकृष्ण कई महीनों तक हस्तिनापुर में ही रहे। फिर जब उन्होंने राजा युधिष्ठिर से द्वारका जाने की अनुमति माँगी, तब राजा ने उन्हें अपने हृदय से लगाकर स्वीकृति दे दी। भगवान उनको प्रणाम करके रथ पर सवार हुए। कुछ लोगों (समान उम्र वालों) ने उनका आलिंगन किया और कुछ (छोटी उम्र वालों) ने प्रणाम। उस समय सुभद्रा, द्रौपदी, कुन्ती, उत्तरा, गान्धारी, धृतराष्ट्र, युयुत्सु, कृपाचार्य, नकुल, सहदेव, भीमसेन, धौम्य और सत्यवती आदि सब मुर्च्छित-से हो गये। वे शारंगपाणि श्रीकृष्ण का विरह नहीं सह सके।

भगवद्भक्त सत्पुरुषों के संग से जिसका दुःसंग छूट गया है, वह विचारशील पुरुष भगवान के मधुर-मनोहर सुयश को एक बार भी सुन लेने पर फिर उसे छोड़ने की कल्पना भी नहीं करता। उन्हीं भगवान के दर्शन तथा स्पर्श से, उनके साथ आलाप करने से तथा साथ-ही-साथ सोने, उठने-बैठने और भोजन करने से जिनका सम्पूर्ण हृदय उन्हें समर्पित हो चुका था, वे पाण्डव भला, उनका विरह कैसे सह सकते थे। उनका चित्त द्रवित हो रहा था, वे सब निर्निमेष नेत्रों से भगवान को देखते हुए स्नेह बन्धन से बँधकर जहाँ-तहाँ दौड़ रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण के घर से चलते समय उनके बन्धुओं की स्त्रियों के नेत्र उत्कण्ठावश उमड़ते हुए आँसुओं से भर आये; परंतु इस भय से कि कहीं यात्रा के समय अशकुन न हो जाये, उन्होंने बड़ी कठिनाई से उन्हें रोक लिया।

भगवान के प्रस्थान के समय मृदंग, शंख, भेरी, वीणा, ढोल, नरसिंगे, धुन्धुरी, नगारे, घंटे और दुन्दुभियाँ आदि बाजे बजने लगे। भगवान के दर्शन की लालसा से कुरु वंश की स्त्रियाँ अटारियों पर चढ़ गयीं और प्रेम, लज्जा एवं मुस्कान से युक्त चितवन से भगवान को देखती हुई उन पर पुष्पों कि वर्षा करने लगीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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