श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 1-16

सप्तम स्कन्ध: चतुर्थोऽध्याय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: अथ चतुर्थ अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


हिरण्यकशिपु के अत्याचार और प्रह्लाद के गुणों का वर्णन

नारद जी कहते हैं- युधिष्ठिर! जब हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा जी से इस प्रकार के अत्यन्त दुर्लभ वर माँगे, तब उन्होंने उसकी तपस्या से प्रसन्न होने के कारण उसे वे वर दे दिये।

ब्रह्मा जी ने कहा- बेटा! तुम जो वर मुझसे माँग रहे हो, वे जीवों के लिये बहुत ही दुर्लभ हैं; परन्तु दुर्लभ होने पर भी मैं तम्हें वे सब वर दिये देता हूँ।

नारद जी कहते हैं- ब्रह्मा जी के वरदान कभी झूठे नहीं होते। वे समर्थ एवं भगवदरूप ही हैं। वरदान मिल जाने के बाद हिरण्यकशिपु ने उनकी पूजा की। तत्पश्चात् प्रजापतियों से अपनी स्तुति सुनते हुए वे अपने लोक को चले गये। ब्रह्मा जी से वर प्राप्त करने पर हिरण्यकशिपु का शरीर सुवर्ण के समान कान्तिमान् एवं हृष्ट-पुष्ट हो गया। वह अपने भाई की मृत्यु का स्मरण करके भगवान् से द्वेष करने लगा। उस महादैत्य ने समस्त दिशाओं, तीनों लोकों तथा देवता, असुर, नरपति, गन्धर्व, गरुड़, सर्प, सिद्ध, चारण, विद्याधर, ऋषि, पितरों के अधिपति, मनु, यक्ष, राक्षस, पिशाचराज, प्रेत, भूतपति एवं समस्त प्राणियों के राजाओं को जीतकर अपने वश में कर लिया। यहाँ तक कि उस विश्व-विजयी दैत्य ने लोकपालों की शक्ति और स्थान भी छीन लिये।

अब वह नन्दन वन आदि दिव्य उद्यानों के सौन्दर्य से युक्त स्वर्ग में ही रहने लगा था। स्वयं विश्वकर्मा का बनाया हुआ इन्द्र का भवन ही उसका निवासस्थान था। उस भवन में तीनों लोकों का सौन्दर्य मूर्तिमान् होकर निवास करता था। वह सब प्रकार की सम्पत्तियों से सम्पन्न था। उस महल में मूँगे की सीढ़ियाँ, पन्ने की गचें, स्फटिकमणि की दीवारें, वैदूर्यमणि के खंभे और माणिक की कुर्सियाँ थीं। रंग-बिरंगे चँदोवे तथा दूध के फेन के समान शय्याएँ, जिन पर मोतियों की झालरें लगी हुई थीं, शोभायमान हो रही थीं। सर्वांगसुन्दरी अप्सराएँ अपने नूपुरों से रुन-झुन ध्वनि करती हुई रत्नमय भूमि पर इधर-उधर टहला करती थीं और कहीं-कहीं उसमें अपना सुन्दर मुख देखने लगती थीं। उस महेन्द्र के महल में महाबली और महामनस्वी हिरण्यकशिपु सब लोकों को जीतकर, सबका एकच्छत्र सम्राट् बनकर बड़ी स्वतन्त्रता से विहार करने लगा। उसका शासन इतना कठोर था कि उससे भयभीत होकर देव-दानव उसके चरणों की वन्दना करते रहते थे।

युधिष्ठिर! वह उत्कट गन्ध वाली मदिरा पीकर मतवाला रहा करता था। उसकी आँखें लाल-लाल और चढ़ी हुई रहतीं। उस समय तपस्या, योग, शारीरिक और मानसिक बल का वह भंडार था। ब्रह्मा, विष्णु और महादेव के सिवा और सभी देवता अपने हाथों में भेंट ले-लेकर उसकी सेवा में लगे रहते। जब वह अपने पुरुषार्थ से इन्द्रासन पर बैठ गया, तब युधिष्ठिर! विश्वावसु, तुम्बुरु तथा हम सभी लोग उसके सामने गान करते थे। गन्धर्व, सिद्ध, ऋषिगण, विद्याधर और अप्सराएँ बार-बार उसकी स्तुति करती थीं।

युधिष्ठिर! वह इतना तेजस्वी था कि वर्णाश्रम धर्म का पालन करने वाले पुरुष जो बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञ करते, उनके यज्ञों की आहुति वह स्वयं छीन लेता। पृथ्वी के सातों द्वीपों में उसका अखण्ड राज्य था। सभी जगह बिना ही जोते-बोये धरती से अन्न पैदा होता था। वह जो कुछ चाहता, अन्तरिक्ष से उसे मिल जाता तथा आकाश उसे भाँति-भाँति की आश्चर्यजनक वस्तुएँ दिखा-दिखाकर उसका मनोरंजन करता था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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