श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 26 श्लोक 1-16

चतुर्थ स्कन्ध: षड्-विंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


राजा पुरंजन का शिकार खेलने वन में जाना और रानी का कुपित होना

श्रीनारद जी कहते हैं—राजन्! एक दिन राजा पुरंजन अपना विशाल धनुष, सोने का कवच और अक्षय तरकस धारण कर अपने ग्यारहवें सेनापति के साथ पाँच घोड़ों के शीघ्रगामी रथ में बैठकर पंचप्रस्थ नाम के वन में गया। उस रथ में दो ईषादण्ड (बंब), दो पहिये, एक धुरी, तीन ध्वजदण्ड, पाँच डोरियाँ, एक लगाम, एक सारथि, एक बैठने का स्थान, दो जुए, पाँच आयुध और सात आवरण थे। वह पाँच प्रकार की चालों से चलता था तथा उसका साज-बाज सब सुनहरा था। यद्यपि राजा के लिये अपनी प्रिया को क्षण भर भी छोड़ना कठिन था, किन्तु उस दिन उसे शिकार का ऐसा शौक लगा कि उसकी भी परवा न कर वह बड़े गर्व से धनुष-बाण चढ़ाकर आखेट करने लगा। इस समय आसुरीवृत्ति बढ़ जाने से उसका चित्त बड़ा कठोर और दयाशून्य हो गया था, इससे उसने अपने तीखे बाणों से बहुत-से निर्दोष जंगली जानवरों का वध कर डाला। जिसकी मांस में अत्यन्त आसक्ति हो, वह राजा केवल शास्त्रप्रदर्शित कर्मों के लिये वन में जाकर आवश्यकतानुसार अनिषिद्ध पशुओं का वध करे; व्यर्थ पशुहिंसा न करे। शास्त्र इस प्रकार उच्छ्रंखल प्रवृत्ति को नियन्त्रित करता है।

राजन्! जो विद्वान् इस प्रकार शास्त्रनियत कर्मों का आचरण करता है, वह उस कर्मानुष्ठान से प्राप्त हुए ज्ञान के कारणभूत कर्मों से लिप्त नहीं होता। नहीं तो, मनमाना कर्म करने से मनुष्य अभिमान के वशीभूत होकर कर्मों में बँध जाता है तथा गुण-प्रवाहरूप संसारचक्र में पड़कर विवेक-बुद्धि के नष्ट हो जाने से अधम योनियों में जन्म लेता है। पुरंजन के तरह-तरह के पंखों वाले बाणों से छिन्न-भिन्न होकर अनेकों जीव बड़े कष्ट के साथ प्राण त्यागने लगे। उसका वह निर्दयतापूर्ण जीव-संहार देखकर सभी दयालुपुरुष बहुत दुःखी हुए। वे इसे सह नहीं सके।

इस प्रकार वहाँ खरगोश, सूअर, भैंसे, नीलगाय, कृष्णमृग, साही तथा और भी बहुत-से मेध्य पशुओं का वध करते-करते राजा पुरंजन बहुत थक गया। तब वह भूख-प्यास से अत्यन्त शिथिल हो वन से लौटकर राजमहल में आया। वहाँ उसने यथायोग्य रीति से स्नान और भोजन से निवृत्त हो, कुछ विश्राम करके थकान दूर की। फिर गन्ध, चन्दन और माला आदि से सुसज्जित हो सब अंगों में सुन्दर-सुन्दर आभूषण पहने। तब उसे अपनी प्रिया की याद आयी। वह भोजनादि से तृप्त, हृदय में आनन्दित, मद से उन्मत्त और काम से व्यथित होकर अपनी सुन्दरी भार्या को ढूँढने लगा; किन्तु उसे वह कहीं भी दिखायी न दी।

प्राचीनबर्हि! तब उसने चित्त में कुछ उदास होकर अन्तःपुर की स्त्रियों से पूछा, ‘सुन्दरियों! अपनी स्वामिनी के सहित तुम सब पहले की ही तरह कुशल से हो न? क्या कारण है आज इस घर की सम्पत्ति पहले-जैसी सुहावनी नहीं जान पड़ती? घर में माता अथवा पतिपरायणा भार्या न हो, तो वह घर बिना पहिये के रथ के समान हो जाता है; फिर उसमे कौन बुद्धिमान् दीन पुरुषों के समान रहना पसंद करेगा। अतः बताओ, वह सुन्दरी कहाँ है, जो दुःख-समुद्र में डूबने पर मेरी विवेक-बुद्धि को पद-पद पर जाग्रत् करके मुझे उस संकट से उबार लेती है?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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