श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 25 श्लोक 48-62

चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्यायः श्लोक 48-62 का हिन्दी अनुवाद


इसी प्रकार उस ओर नलिनी और नालिनी नाम के द्वार और भी एक ही जगह बनाये गये थे। उनसे होकर वह अवधूत के साथ सौरभ नामक देश को जाता था। पूर्व दिशा की ओर मुख्या नाम का जो पाँचवाँ द्वार था, उसमें होकर वह रसज्ञ और विपन के साथ क्रमशः बहूदन और आपण नाम के देशों को जाता था। पुरी के दक्षिण की ओर जो पितृहू नाम का द्वार था, उसमें होकर राजा पुरंजन श्रुतधर के साथ दक्षिण पांचाल देश को जाता था। उत्तर की ओर जो देवहू नाम का द्वार था, उससे श्रुतधर के ही साथ वह उत्तर पांचाल देश को जाता था। पश्चिम दिशा में आसुरि नाम का दरवाजा था, उसमें होकर वह दुर्मद के साथ ग्रामक देश को जाता था तथा निर्ऋति नाम का जो दूसरा पश्चिम द्वार था, उससे लुब्धक के साथ वह वैशस नाम के देश को जाता था। इस नगर के निवासियों में निर्वाक् और पेशस्कृत्-ये दो नागरिक अन्धे थे। राजा पुरंजन आँख वाले नागरिकों का अधिपति होने पर भी इन्हीं की सहायता से जहाँ-तहाँ जाता और सब प्रकार के कार्य करता था।

जब कभी अपने प्रधान सेवक विषूचीन के साथ अन्तःपुर में जाता, तब उसे स्त्री और पुत्रों के कारण होने वाले मोह, प्रसन्नता एवं हर्ष आदि विकारों का अनुभव होता। उसका चित्त तरह-तरह के कर्मों में फँसा हुआ था और काम-परवश होने के कारण वह मूढ़ रमणी के द्वारा ठगा गया था। उसकी रानी जो-जो काम करती थी, वही वह भी करने लगता था। वह जब मद्यपान करती, तब वह भी मदिरा पीता और मद से उन्मत्त हो जाता था; जब वह भोजन करती, तब आप भी वही वस्तु चबाने लगता था। इसी प्रकार कभी उसके गाने पर गाने लगता, रोने पर रोने लगता, हँसने पर हँसने लगता और बोलने पर बोलने लगता। वह दौड़ती तो आप भी दौड़ने लगता, खड़ी होती तो आप भी खड़ा हो जाता, सोती तो आप भी उसी के साथ सो जाता और बैठती तो आप भी बैठ जाता। कभी वह सुनने लगती तो आप भी सुनने लगता, देखती तो देखने लगता, सूँघती तो सूँघने लगता और किसी चीज को छूती तो आप भी छूने लगता। कभी उसकी प्रिया शोकाकुल होती तो आप भी अत्यन्त दीन के समान व्याकुल हो जाता; जब वह प्रसन्न होती, आप भी प्रसन्न हो जाता और उसके आनन्दित होने पर आप भी आनन्दित हो जाता। (इस प्रकार) राजा पुरंजन अपनी सुन्दरी रानी के द्वारा ठगा गया। सारा प्रकृतिवर्ग-परिकर ही उसको धोखा देने लगा। वह मूर्ख विवश होकर इच्छा न होने पर भी खेल के लिए घर पर पाले हुए बंदर के समान अनुकरण करता रहता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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