श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 23 श्लोक 1-14

अष्टम स्कन्ध: त्रयोविंशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: त्रयोविश अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


बलि का बन्धन से छूटकर सुतल लोक को जाना

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- जब सनातन पुरुष भगवान ने इस प्रकार कहा, तो साधुओं के आदरणीय महानुभाव दैत्यराज के नेत्रों में आँसू छलक आये। प्रेम के उद्रेक से उनका गला भर आया। वे हाथ जोड़कर गद्गद वाणी से भगवान से कहने लगे।

बलि ने कहा- 'प्रभो! मैंने तो आपको पूरा प्रणाम भी नहीं किया, केवल प्रणाम करने मात्र की चेष्टा भर की। उसी से मुझे वह फल मिला, जो आपके चरणों के शरणागत भक्तों को प्राप्त होता है। बड़े-बड़े लोकपाल और देवताओं पर आपने जो कृपा कभी नहीं की, वह मुझ-जैसे नीच असुर को सहज ही प्राप्त हो गयी।'

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! यों कहते ही बलि वरुण के पाशों से मुक्त हो गये। तब उन्होंने भगवान, ब्रह्मा जी और शंकर जी को प्रणाम किया और इसके बाद बड़ी प्रसन्नता से असुरों के साथ सुतल लोक की यात्रा की। इस प्रकार भगवान ने बलि से स्वर्ग का राज्य लेकर इन्द्र को दे दिया, अदिति की कामना पूर्ण की और स्वयं उपेन्द्र बनकर वे सारे जगत् का शासन करने लगे। जब प्रह्लाद ने देखा कि मेरे वंशधर पौत्र राजा बलि बन्धन से छूट गये और उन्हें भगवान का कृपा-प्रसाद प्राप्त हो गया तो वे भक्ति-भाव से भर गये। उस समय उन्होंने भगवान की इस प्रकार स्तुति की।

प्रह्लाद जी ने कहा- 'प्रभो! यह कृपाप्रसाद तो कभी ब्रह्मा जी, लक्ष्मी जी और शंकर जी को भी नहीं प्राप्त हुआ, तब दूसरों की तो बात ही क्या है। अहो! विश्ववन्द्य ब्रह्मा आदि भी जिनके चरणों की वन्दना करते रहते हैं, वही आप हम असुरों के दुर्गपाल-किलेदार हो गये। शरणागतवत्सल प्रभो! ब्रह्मा आदि लोकपाल आपके चरणकमलों का मकरन्द-रस सेवन करने के कारण सृष्टि रचना की शक्ति आदि अनेक विभूतियाँ प्राप्त करते हैं। हम लोग तो जन्म से ही खल और कुमार्गगामी हैं, हम पर आपकी ऐसी अनुग्रहपूर्ण दृष्टि कैसे हो गयी, जो आप हमारे द्वारपाल ही बन गये। आपने अपनी योगमाया से खेल-ही-खेल में त्रिभुवन की रचना कर दी। आप सर्वज्ञ, सर्वात्मा और समदर्शी हैं। फिर भी आपकी लीलाएँ बड़ी विलक्षण जान पड़ती हैं। आपका स्वभाव कल्प-वृक्ष के समान है; क्योंकि आप अपने भक्तों से अत्यन्त प्रेम करते हैं। इसी से कभी-कभी उपासकों के प्रति पक्षपात और विमुखों के प्रति निर्दयता भी आपमें देखी जाती है।'

श्रीभगवान ने कहा- 'बेटा प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम भी सुतल लोक में जाओ। वहाँ अपने पौत्र बलि के साथ आनन्दपूर्वक रहो और जाति-बन्धुओं को सुखी करो। वहाँ तुम मुझे नित्य ही गदा हाथ में लिये खड़ा देखोगे। मेरे दर्शन के परमानन्द में मग्न रहने के कारण तुम्हारे सारे कर्मबन्धन नष्ट हो जायेंगे।'

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! समस्त दैत्य सेना के स्वामी विशुद्ध बुद्धि प्रह्लाद जी ने ‘जो आज्ञा’ कहकर, हाथ जोड़, भगवान का आदेश मस्तक पर चढ़ाया। फिर उन्होंने बलि के साथ आदिपुरुष भगवान की परिक्रमा की, उन्हें प्रणाम किया और उनसे अनुमति लेकर सुतल लोक की यात्रा की।

परीक्षित! उस समय भगवान श्रीहरि ने ब्रह्मवादी ऋत्विजों की सभा में अपने पास ही बैठे हुए शुक्राचार्य जी से कहा- ‘ब्रह्मन्! आपका शिष्य यज्ञ कर रहा था। उसमें जो त्रुटि रह गयी है, उसे आप पूर्ण कर दीजिये। क्योंकि कर्म करने में जो कुछ भूल-चूक हो जाती है, वह ब्राह्मणों की कृपा-दृष्टि से सुधर जाती है’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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