श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 18 श्लोक 1-17

षष्ठ स्कन्ध: अष्टादश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


अदिति और दिति की सन्तानों की तथा मरुद्गणों की उत्पत्ति का वर्णन

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! सविता की पत्नी पृश्नि के गर्भ से आठ सन्तानें हुईं- सावित्री, व्याहृति, त्रयी, अग्निहोत्र, पशु, सोम, चातुर्मास्य और पंचमहायज्ञ। भग की पत्नी सिद्धि ने महिमा, विभु और प्रभु- ये तीन पुत्र और आशिष् नाम की एक कन्या उत्पन्न की। यह कन्या बड़ी सुन्दरी और सदाचारिणी थी।

धाता की चार पत्नियाँ थीं- कुहू, सिनीवाली, राका और अनुमति। उनसे क्रमशः सायं, दर्श, प्रातः और पूर्णमास- ये चार पुत्र हुए। धाता के छोटे भाई का नाम था-विधाता, उनकी पत्नी क्रिया थी। उससे पुरीष्य नाम के पाँच अग्नियों की उत्पत्ति हुई। वरुण जी की पत्नी का नाम चर्षणी था। उससे भृगु जी ने पुनः जन्म ग्रहण किया। इसके पहले वे ब्रह्मा जी के पुत्र थे।

महायोगी वाल्मीकि जी भी वरुण के पुत्र थे। वाल्मीक से पैदा होने के कारण ही उनका नाम वाल्मीकि पड़ गया था। उर्वशी को देखकर मित्र और वरुण दोनों का वीर्य स्खलित हो गया था। उसे उन लोगों ने घड़े में रख दिया। उसी से मुनिवर अगस्त्य और वसिष्ठ जी का जन्म हुआ। मित्र की पत्नी थी रेवती। उसके तीन पुत्र हुए- उत्सर्ग, अरिष्ट और पिप्पल।

प्रिय परीक्षित! देवराज इन्द्र की पत्नी थीं पुलोमनन्दिनी शची। उनसे हमने सुना है, उन्होंने तीन पुत्र उत्पन्न किये- जयन्त, ऋषभ और मीढ़वान। स्वयं भगवान् विष्णु ही (बलि पर अनुग्रह करने और इन्द्र का राज्य लौटाने के लिये) माया से वामन (उपेन्द्र) के रूप में अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने तीन पग पृथ्वी माँगकर तीनों लोक नाप लिये थे। उनकी पत्नी का नाम था कीर्ति। उससे बृहच्छ्रलोक नाम का पुत्र हुआ। उसके सौभाग आदि कई सन्तानें हुईं। कश्यपनन्दन भगवान् वामन ने माता अदिति के गर्भ से क्यों जन्म लिया और इस अवतार में उन्होंने कौन-से गुण, लीलाएँ और पराक्रम प्रकट किये-इसका वर्णन मैं आगे (आठवें स्कन्ध में) करूँगा।

प्रिय परीक्षित! अब मैं कश्यप जी की दूसरी पत्नी दिति से उत्पन्न होने वाली उस सन्तान परम्परा का वर्णन सुनाता हूँ, जिसमें भगवान् के प्यारे भक्त श्रीप्रह्लाद जी और बलि का जन्म हुआ। दिति के दैत्य और दानवों के वन्दनीय दो ही पुत्र हुए-हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष। इनकी संक्षिप्त कथा मैं तुम्हें (तीसरे स्कन्ध में) सुना चुका हूँ।

हिरण्यकशिपु की पत्नी दानवी कयाधु थी। उसके पिता जम्भ ने उसका विवाह हिरण्यकशिपु से कर दिया। कयाधु के चार पुत्र हुए- संह्लाद, अनुह्लाद, ह्लाद और प्रह्लाद। इनकी सिंहीका नाम की एक बहिन भी थी। उसका विवाह विप्रचित्ति नामक दानव से हुआ। उससे राहु नामक पुत्र की उत्पत्ति हुई। यह वही राहु है, जिसका सिर अमृतपान के समय मोहिनीरूपधारी भगवान् ने चक्र से काट लिया था। संह्राद की पत्नी थी कृति। उससे पंचजन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। ह्राद की पत्नी थी धमनि। उसके दो पुत्र हुए- वातापि और इल्वल। इस इल्वल ने ही महर्षि अगस्त्य के आतिथ्य के समय वातापि को पकाकर उन्हें खिला दिया था। अनुह्राद की पत्नी सूर्म्या थी, उसके दो पुत्र हुए- बाष्कल और महिषासुर। प्रह्लाद का पुत्र था विरोचन। उसकी पत्नी देवी के गर्भ से दैत्यराज बलि का जन्म हुआ। बलि की पत्नी का नाम अशना था। उससे बाण आदि सौ पुत्र हुए। दैत्यराज बलि की महिमा गान करने योग्य है। उसे मैं आगे (आठवें स्कन्ध में) सुनाऊँगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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