श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 1-12

अष्टम स्कन्ध: षष्ठोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


देवताओं और दैत्यों का मिलकर समुद्र मन्थन के लिये उद्योग करना

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जब देवताओं ने सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि की इस प्रकार स्तुति की, तब वे उनके बीच में ही प्रकट हो गये। उनके शरीर की प्रभा ऐसी थी, मानो हजारों सूर्य एक साथ ही उग गये हों। भगवान् की उस प्रभा से सभी देवताओं की आँखें चौंधिया गयीं। वे भगवान् को तो क्या-आकाश, दिशाएँ, पृथ्वी और अपने शरीर को भी न देख सके। केवल भगवान् शंकर और ब्रह्मा जी ने उस छबि का दर्शन किया। बड़ी ही सुन्दर झाँकी थी। मरकतमणि (पन्ने) के समान स्वच्छ श्यामल शरीर, कमल के भीतरी भाग के समान सुकुमार नेत्रों में लाल-लाल डोरियाँ और चमकते हुए सुनहले रंग का रेशमी पीताम्बर। सर्वांगसुन्दर शरीर के रोम-रोम से प्रसन्नता फूटी पड़ती थी। धनुष के समान टेढ़ी भौंहें और बड़ा ही सुन्दर मुख। सिर पर महामणिमय किरीट और भुजाओं में बाजूबंद। कानों के झलकते हुए कुण्डलों की चमक पड़ने से कपोल और भी सुन्दर हो उठते थे, जिससे मुखकमल खिल उठता था। कमर में करधनी की लड़ियाँ, हाथों में कंगन, गले में हार और चरणों में नूपुर शोभायमान थे। वक्षःस्थल पर लक्ष्मी और गले में कौस्तुभ मणि तथा वनमाला सुशोभित थीं। भगवान् के निज अस्त्र सुदर्शन चक्र आदि मूर्तिमान् होकर उनकी सेवा कर रहे थे। सभी देवताओं ने पृथ्वी पर गिरकर साष्टांग प्रणाम किया। फिर सारे देवताओं को साथ ले शंकर जी तथा ब्रह्मा जी परम पुरुष भगवान् की स्तुति करने लगे।

ब्रह्मा जी ने कहा- जो जन्म, स्थिति और प्रलय से कोई सम्बन्ध नहीं रखते, जो प्राकृत गुणों से रहित एवं मोक्षस्वरूप परमानन्द के महान् समुद्र हैं, जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हैं और जिनका स्वरूप अनन्त है- उन पर ऐश्वर्यशाली प्रभु को हम लोग बार-बार नमस्कार करते हैं। पुरुषोत्तम! अपना कल्याण चाहने वाले साधक वेदोक्त एवं पांचरात्रोक्त विधि से आपके इसी स्वरूप की उपासना करते हैं। मुझे भी रचने वाले प्रभो! आपके इस विश्वमय स्वरूप में मुझे समस्त देवगणों के सहित तीनों लोक दिखायी दे रहे हैं। आप में ही पहले यह जगत् लीन था, मध्य में भी यह आपमें ही स्थित है और अन्त में भी यह पुनः आप में ही लीन हो जायेगा। आप स्वयं कार्य-कारण से परे परम स्वतन्त्र हैं। आप ही इस जगत् के आदि, अन्त और मध्य हैं-वैसे ही जैसे घड़े का आदि, मध्य और अन्त मिट्टी है।

आप अपने ही आश्रय रहने वाली अपनी माया से इस संसार की रचना करते हैं और इसमें फिर से प्रवेश करके अन्तर्यामी के रूप में विराजमान होते हैं। इसीलिये विवेकी और शास्त्रज्ञ पुरुष बड़ी सावधानी से अपने मन को एकाग्र करके इन गुणों की, विषयों की भीड़ में भी आपके निर्गुण स्वरूप का ही साक्षत्कार करते हैं। जैसे मनुष्य युक्ति के द्वारा लकड़ी से आग, गौ से अमृत के समान दूध, पृथ्वी से अन्न तथा जल और व्यापार से अपनी आजीविका प्राप्त कर लेते हैं-वैसे ही विवेकी पुरुष भी अपनी शुद्ध बुद्धि से भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि के द्वारा आपको इन विषयों में ही प्राप्त कर लेते हैं और अपनी अनुभूति के अनुसार आपका वर्णन भी करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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