श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 23 श्लोक 1-12

एकादश स्कन्ध: त्रयोविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रयोविंश अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


एक तितिक्षु ब्राह्मण का इतिहास

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! वास्तव में भगवान की लीला कथा ही श्रवण करने योग्य है। वे ही प्रेम और मुक्ति के दाता हैं। जब उनके परमप्रेमी भक्त उद्धव जी ने इस प्रकार प्रार्थना की, तब यदुवंशविभूषण श्रीभगवान ने उनके प्रश्न की प्रशंसा करके उनसे इस प्रकार कहा-

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- देवगुरु बृहस्पति के शिष्य उद्धव जी! इस संसार में प्रायः ऐसे संत-पुरुष नहीं मिलते, जो दुर्जनों की कटुवाणी से बिंधे हुए अपने हृदय को सँभाल सकें। मनुष्य का हृदय मर्मभेदी बाणों से बिंधने पर भी उतनी पीड़ा का अनुभव नहीं करता, जितनी पीड़ा उसे दुष्टजनों के मर्मान्तक एवं कठोर वाग्बाण पहुँचाते हैं। उद्धव जी! इस विषय में महात्मा लोग एक बड़ा पवित्र प्राचीन इतिहास कहा करते हैं; मैं वही तुम्हें सुनाउँगा, तुम मन लगाकर उसे सुनो। एक भिक्षुक को दुष्टों ने बहुत सताया था। उस समय भी उसने अपना धैर्य न छोड़ा और उसे अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल समझकर कुछ अपने मानसिक उदगार प्रकट किये थे। उन्हीं का इस इतिहास में वर्णन है।

प्राचीन समय की बात है, उज्जैन में एक ब्राह्मण रहता था। उसने खेती-व्यापार आदि करके बहुत-सी धन-सम्पत्ति इकट्ठी कर ली थी। वह बहुत ही कृपण, कामी और लोभी था। क्रोध तो उसे बात-बात में आ जाया करता था। उसने अपने जाति-बन्धु और अतिथियों को कभी मीठी बात से भी प्रसन्न नहीं किया, खिलाने-पिलाने की तो बात ही क्या है। वह धर्म-कर्म से रीते घर में रहता और स्वयं भी अपनी धन-सम्पत्ति के द्वारा समय पर अपने शरीर को भी सुखी नहीं करता था। उसकी कृपणता और बुरे स्वभाव के कारण उसके बेटे-बेटी, भाई-बन्धु, नौकर-चाकर और पत्नी आदि सभी दुःखी रहते और मन-ही-मन उसका अनिष्टचिन्तन किया करते थे। कोई भी उसके मन को प्रिय लगने वाला व्यवहार नहीं करता था। वह लोक-परलोक दोनों से गिर गया था। बस, यक्षों के समान धन की रखवाली करता रहता था। उस धन से वह न तो धर्म कमाता था और न भोग ही भोगता था। बहुत दिनों तक इस प्रकार जीवन बिताने से उस पर पंच महायज्ञ के भागी देवता बिगड़ उठे।

उदार उद्धव जी! पंच महायज्ञ के भागियों के तिरस्कार से उसके पूर्व-पुण्यों का सहारा-जिसके बल से अब तक धन टिका हुआ था-जाता रहा और जिसे उसने बड़े उद्योग और परिश्रम से इकठ्ठा किया था, वह धन उसकी आँखों के सामने ही नष्ट-भ्रष्ट हो गया। उस नीच ब्राह्मण का कुछ धन तो उसके कुटुम्बियों ने ही छीन लिया, कुछ चोर चुरा ले गये। कुछ आग लग जाने आदि दैवी कोप से नष्ट हो गया, कुछ समय के फेर से मारा गया। कुछ साधारण मनुष्यों ने ले लिया और बचा-खुचा कर और दण्ड के रूप में शासकों ने हड़प लिया। उद्धव जी! इस प्रकार उसकी सारी सम्पत्ति जाती रही। न तो उसने धर्म ही कमाया और न भोग ही भोगे। इधर उसके सगे-सम्बन्धियों ने भी उसकी ओर से मुँह मोड़ लिया। अब उसे बड़ी भयानक चिन्ता ने घेर लिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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