श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 1-6

पंचम स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 1-6 का हिन्दी अनुवाद


भवाटवी का स्पष्टीकरण

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! देहाभिमानी जीवों के द्वारा सत्त्वादि गुणों के भेद से शुभ, अशुभ और मिश्र- तीन प्रकार के कर्म होते रहते हैं। उन कर्मों के द्वारा ही निर्मित नाना प्रकार के शरीरों के साथ होने वाला जो संयोग-वियोगादिरूप अनादि संसार जीव को प्राप्त होता है, उसके अनुभव के छः द्वार हैं- मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ। उनसे विवश होकर यह जीव समूह मार्ग भूलकर भयंकर वन में भटकते हुए धन के लोभी बनिजारों के समान परसमर्थ भगवान् विष्णु के आश्रित रहने वाली माया की प्रेरणा से बीहड़ वन के समान दुर्गम मार्ग में पड़कर संसार-वन में जा पहुँचाता है। यह वन श्मशान के समान अत्यन्त अशुभ है। इसमें भटकते हुए उसे अपने शरीर से किये हुए कर्मों का फल भोगना पड़ता है। यहाँ अनेकों विघ्नों के कारण उसे अपने व्यापार में सफलता भी नहीं मिलती; तो भी यह उसके श्रम को शान्त करने वाले श्रीहरि एवं गुरुदेव के चरणारविन्द-मकरन्द-मधु के रसिक भक्त-भ्रमरों के मार्ग का अनुसरण नहीं करता। इस संसार-वन में मन सहित छः इन्द्रियाँ ही अपने कर्मों की दृष्टि से डाकुओं के समान हैं।

पुरुष बहुत-सा कष्ट उठाकर जो धन कमाता है, उसका उपयोग धर्म में होना चाहिये; वही धर्म यदि साक्षात् भगवान् परमपुरुष की आराधना के रूप होता है तो उसे परलोक में निःश्रेयस का हेतु बतलाया गया है। किन्तु जिस मनुष्य का बुद्धिरूप सारथि विवेकहीन होता है और मन वश में नहीं होता, उसके उस धर्मोपयोगी धन को ये मन सहित छः इन्द्रियाँ देखना, स्पर्श करना, सुनना, स्वाद लेना, सूँघना, संकल्प-विकल्प करना और निश्चय करना- इन वृत्तियों के द्वारा गृहस्थोचित विषय भोगों में फँसाकर उसी प्रकार लूट लेती है, जिस प्रकार बेईमान मुखिया का अनुगमन करने वाले एवं असावधान बनिजारों के दल का धन चोर-डाकू लूट ले जाते हैं।

ये ही नहीं, उस संसार-वन में रहने वाले उसके कुटुम्बी भी- जो नाम से तो स्त्री-पुत्रादि कहे जाते हैं, किन्तु कर्म जिनके साक्षात् भेड़ियों और गीदड़ों के समान होते हैं- उस अर्थलोलुप कुटुम्बी के धन को उसकी इच्छा न रहने पर भी उसके देखते-देखते इस प्रकार छीन ले जाते हैं, जैसे भेड़िये गड़रियों से सुरक्षित भेड़ों को उठा ले जाते हैं। जिस प्रकार यदि किसी खेत के बीजों को अग्नि द्वारा जला न दिया गया हो, तो प्रतिवर्ष जोतने पर भी खेती का समय आने पर वह फिर झाड़-झंखाड़, लता और तृण आदि से गहन हो जाता है- उसी प्रकार यह गृहस्थाश्रम भी कर्मभूमि है, इसमें भी कर्मों का सर्वथा उच्छेद कभी नहीं होता, क्योंकि यह घर कामनाओं की पिटारी है। उस गृहस्थाश्रम में आसक्त हुए व्यक्ति के धनरूप बाहरी प्राणों को डांस और मच्छरों के समान नीच पुरुषों से तथा टिड्डी, पक्षी, चोर और चूहे आदि से क्षति पहुँचती रहती है। कभी इस मार्ग में भटकते-भटकते यह अविद्या, कामना और कर्मों से कलुषित हुए अपने चित्त से दृष्टिदोष के कारण इस मर्त्य-लोक को, गन्धर्व नगर के समान असत् है, सत्य समझने लगता है। फिर खान-पान और स्त्री-प्रसंगादि व्यसनों में फँसकर मृगतृष्णा के समान मिथ्या विषयों की ओर दौड़ने लगता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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