श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 1-14

सप्तम स्कन्ध: दशमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


प्रह्लाद जी के राज्याभिषेक और त्रिपुरदहन की कथा

नारद जी कहते हैं- प्रह्लाद जी ने बालक होने पर भी यह समझा कि वरदान माँगना प्रेम-भक्ति का विघ्न है; इसलिये कुछ मुसकराते हुए वे भगवान् से बोले।

प्रह्लाद जी ने कहा- 'प्रभो! मैं जन्म से ही विषय-भोगों में आसक्त हूँ, अब मुझे इन वरों के द्वारा आप लुभाइये नहीं। मैं उन भोगों के संग से डरकर, उनके द्वारा होने वाली तीव्र वेदना का अनुभव कर उनसे छूटने की अभिलाषा से ही आपकी शरण में आया हूँ। भगवन्! मुझमें भक्त के लक्षण हैं या नहीं- यह जानने के लिये आपने अपने भक्त को वरदान माँगने की ओर प्रेरित किया है। ये विषय-भोग हृदय की गाँठ को और भी मजबूत करने वाले तथा बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालने वाले हैं।

जगद्गुरो! परीक्षा के सिवा ऐसा कहने का और कोई कारण नहीं दीखता; क्योंकि आप परम दयालु हैं। (अपने भक्त को भोगों में फँसाने वाला वर कैसे दे सकते हैं?) आपसे जो सेवक अपनी कामनाएँ पूर्ण करना चाहता है, वह सेवक नहीं; वह तो लेन-देन करने वाला निरा बनिया है। जो स्वामी से अपनी कामनाओं की पूर्ति चाहता है, वह सेवक नहीं; और जो सेवक से सेवा कराने के लिये, उसका स्वामी बनने के लिये उसकी कामनाएँ पूर्ण करता है, वह स्वामी नहीं। मैं आपका निष्काम सेवक हूँ और आप मेरे निरपेक्ष स्वामी हैं। जैसे राजा और उसके सेवकों का प्रयोजनवश स्वामी-सेवक का सम्बन्ध रहता है, वैसा तो मेरा और आपका सम्बन्ध है नहीं।

मेरे वरदानिशिरोमणि स्वामी! यदि आप मुझे मुँहमाँगा वर देना ही चाहते हैं तो यह वर दीजिये कि मेरे हृदय में कभी किसी कामना का बीज अंकुरित ही न हो। हृदय में किसी भी कामना के उदय होते ही इन्द्रिय, मन, प्राण, देह, धर्म, धैर्य, बुद्धि, लज्जा, श्री, तेज, स्मृति और सत्य- ये सब-के-सब नष्ट हो जाते हैं। कमलनयन! जिस समय मनुष्य अपने मन में रहने वाली कामनाओं का परित्याग कर देता है, उसी समय वह भगवत्स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। भगवन्! आपको नमस्कार है। आप सबके हृदय में विराजमान, उदारशिरोमणि स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं। अद्भुत नृसिंह रूपधारी श्रीहरि के चरणों में मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ।'

श्रीनृसिंह भगवान् ने कहा- प्रह्लाद! तुम्हारे-जैसे मेरे एकान्तप्रेमी इस लोक अथवा परलोक की किसी भी वस्तु के लिये कभी कोई कामना नहीं करते। फिर भी अधिक नहीं, केवल एक मन्वन्तर तक मेरी प्रसन्नता के लिये तुम इस लोक में दैत्याधिपतियों के समस्त भोग स्वीकार कर लो। समस्त प्राणियों के हृदय में यज्ञों के भोक्ता ईश्वर के रूप में मैं ही विराजमान हूँ। तुम अपने हृदय में मुझे देखते रहना और मेरी लीला-कथाएँ, जो तुम्हें अत्यन्त प्रिय हैं, सुनते रहना। समस्त कर्मों के द्वारा मेरी ही आराधना करना और इस प्रकार अपने प्रारब्ध-कर्म का क्षय कर देना। भोग के द्वारा पुण्य कर्मों के फल और निष्काम पुण्य कर्मों के द्वारा पाप का नाश करते हुए समय पर शरीर का त्याग करके समस्त बन्धनों से मुक्त होकर तुम मेरे पास आ जाओगे। देवलोक में भी लोग तुम्हारी विशुद्ध कीर्ति का गान करेंगे। तुम्हारे द्वारा की हुई मेरी इस स्तुति का जो मनुष्य कीर्तन करेगा और साथ ही मेरा और तुम्हारा स्मरण भी करेगा, वह समय पर कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जायेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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