पंचम स्कन्ध: तृतीय अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! आग्नीध्र के पुत्र नाभि के कोई सन्तान न थी, इसलिये उन्होंने अपनी भार्या मेरुदेवी के सहित पुत्र की कामना से एकाग्रतापूर्वक भगवान् यज्ञपुरुष का यजन किया। यद्यपि सुन्दर अंगों वाले श्रीभगवान् द्रव्य, देश, काल, मन्त्र, ऋत्विज्, दक्षिणा और विधि- इन यज्ञ के साधनों से सहज में नहीं मिलते, तथापि वे भक्तों पर तो कृपा करते ही हैं। इसलिये जब महाराज नाभि ने श्रद्धापूर्वक विशुद्ध भाव से उनकी आराधना की, तब उनका चित्त अपने भक्त का अभीष्ट कार्य करने के लिये उत्सुक हो गया। यद्यपि उनका स्वरूप सर्वथा स्वतन्त्र है, तथापि उन्होंने प्रवर्ग्यकर्म का अनुष्ठान होते समय उसे मन और नयनों को आनन्द देने वाले अवयवों से युक्त अति सुन्दर हृदयाकर्षक मूर्ति में प्रकट किया। उनके श्रीअंग में रेशमी पीताम्बर था, वक्षःस्थल पर सुमनोहर श्रीवत्स चिह्न सुशोभित था; भुजाओं में शंख, चक्र, गदा, पद्म तथा गले में वनमाला और कौस्तुभ मणि की शोभा थी। सम्पूर्ण शरीर अंग-प्रत्यंग की कान्ति को बढ़ाने वाले किरणजालमण्डित मणिमय मुकुट, कुण्डल, कंकण, करधनी, हार, बाजूबंद और नूपुर आदि आभूषणों से विभूषित था। ऐसे परम तेजस्वी चतुर्भुजमूर्ति पुरुष विशेष को प्रकट हुआ देख ऋत्विज्, सदस्य और यजमान आदि सभी लोग ऐसे आह्लादित हुए, जैसे निर्धन पुरुष अपार धनराशि पाकर फूला नहीं समाता। फिर सभी ने सिर झुकाकर अत्यन्त आदरपूर्वक प्रभु की अर्ध्य द्वारा पूजा की और ऋत्विजों ने उनकी स्तुति की। ऋत्विजों ने कहा- पूज्यतम! हम आपके अनुगत भक्त हैं, आप हमारे पुनः-पुनः पूजनीय हैं। किन्तु हम आपकी पूजा करना क्या जानें? हम तो बार-बार आपको नमस्कार करते हैं- इतना ही हमें महापुरुषों ने सिखाया है। आप प्रकृति और पुरुष से भी परे हैं। फिर प्राकृत गुणों के कार्यभूत इस प्रपंच में बुद्धि फँस जाने से आपके गुणगान में सर्वथा असमर्थ ऐसा कौन पुरुष है जो प्राकृत नाम, रूप एवं आकृति के द्वारा आपके स्वरूप का निरूपण कर सके? आप साक्षात् परमेश्वर हैं। आपके परममंगलमय गुण सम्पूर्ण जनता के दुःखों का दमन करने वाले हैं। यदि कोई उन्हें वर्णन करने का साहस भी करेगा, तो केवल उनके एक देश का ही वर्णन कर सकेगा। किन्तु प्रभो! यदि आपके भक्त प्रेम-गद्गद वाणी से स्तुति करते हुए सामान्य जल, विशुद्ध पल्लव, तुलसी और दूब के अंकुर आदि सामग्री से ही आपकी पूजा करते हैं, तो भी आप सब प्रकार सन्तुष्ट हो जाते हैं। हमें तो अनुराग के सिवा इस द्रव्य-कालादि अनेकों अंगों वाले यज्ञ से भी आपका कोई प्रयोजन नहीं दिखलायी देता;। क्योंकि आपके स्वतः ही क्षण-क्षण में जो सम्पूर्ण पुरुषार्थों का फलस्वरूप परमानन्द सवभावतः ही निरन्तर प्रादुर्भूत होता है, आप साक्षात् उसके स्वरूप ही हैं। इस प्रकार यद्यपि आपको इन यज्ञादि से कोई प्रयोजन नहीं है, तथापि अनेक प्रकार की कामनाओं की सिद्धि चाहने वाले हम लोगों के लिये तो मनोरथसिद्धि का पर्याप्त साधन यही होना चाहिये। आप ब्रह्मादि परमपरुषों की अपेक्षा भी परम श्रेष्ठ हैं। हम तो यह भी नहीं जानते कि हमारा परमकल्याण किसमें है, और न हमसे आपकी यथोचित पूजा ही बनी है; तथापि जिस प्रकार तत्त्वज्ञ पुरुष बिना बुलाये भी केवल करुणावश अज्ञानी पुरुषों के पास चले जाते हैं, उसी प्रकार आप भी हमें मोक्षसंज्ञक अपना परमपद और हमारी यज्ञदर्शकों के समान यहाँ प्रकट हुए हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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