श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 1-15

नवम स्कन्ध: द्वितीयोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


पृषध्र आदि मनु के पाँच पुत्रों का वंश

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! इस प्रकार जब सुद्युम्न तपस्या करने के लिये वन में चले गये, तब वैवस्वत मनु ने पुत्र की कामना से यमुना के तट पर सौ वर्ष तक तपस्या की। इसके बाद उन्होंने सन्तान के लिये सर्वशक्तिमान भगवान श्रीहरि की आराधना की और अपने ही समान दस पुत्र प्राप्त किये, जिसमें सबसे बड़े इक्ष्वाकु थे। उन मनुपुत्रों में से एक का नाम था पृषध्र। गुरु वसिष्ठ जी ने उसे गायों की रक्षा में नियुक्त कर रखा था, अतः वह रात्रि के समय बड़ी सावधानी से वीरासन से बैठा रहता और गायों की रक्षा करता।

एक दिन रात में वर्षा हो रही थी। उस समय गायों के झुंड में एक बाघ घुस आया। उससे डरकर सोयी हुई गौएँ उठ खड़ी हुईं। वे गोशाला में ही इधर-उधर भागने लगीं। बलवान् बाघ ने एक गाय को पकड़ लिया। वह अत्यन्त भयभीत होकर चिल्लाने लगी। उसका वह क्रन्दन सुनकर पृषध्र गाय के पास दौड़ आया। एक तो रात का समय और दूसरे घनघोर घटाओं से आच्छादित होने के कारण तारे भी नहीं दीखते थे। उसने हाथ में तलवार उठाकर अनजान में ही बड़े वेग से गाय का सिर काट दिया। वह समझ रहा था कि यही बाघ है। तलवार की नोक से बाघ का भी कान कट गया, वह अत्यन्त भयभीत होकर रास्ते में खून गिराता हुआ वहाँ से निकल भागा। शत्रुदमन पृषध्र ने यह समझा कि बाघ मर गया। परंतु रात बीतने पर उसने देखा कि मैंने तो गाय को ही मार डाला है, इससे उसे बड़ा दुःख हुआ।

यद्यपि पृषध्र ने जान-बूझकर अपराध नहीं किया था, फिर भी कुलपुरोहित वसिष्ठ जी ने उसे शाप दिया कि ‘तुम इस कर्म से क्षत्रिय नहीं रहोगे; जाओ, शूद्र हो जाओ’। पृषध्र ने अपने गुरुदेव का यह शाप अंजलि बाँधकर स्वीकार किया और इसके बाद सदा के लिये मुनियों को प्रिय लगने वाले नैष्ठिक ब्रह्मचर्य-व्रत को धारण किया। वह समस्त प्राणियों का अहैतुक हितैषी एवं सबके प्रति समान भाव से युक्त होकर भक्ति के द्वारा परमविशुद्ध सर्वात्मा भगवान् वासुदेव का अनन्य प्रेमी हो गया। उसकी सारी आसक्तियाँ मिट गयीं। वृत्तियाँ शान्त हो गयीं। इन्द्रियाँ वश में हो गयीं। वह कभी किसी प्रकार का संग्रह-परिग्रह नहीं रखता था। जो कुछ दैववश प्राप्त हो जाता, उसी से अपना जीवन-निर्वाह कर लेता। वह आत्मज्ञान से सन्तुष्ट एवं अपने चित्त को परमात्मा में स्थित करके प्रायः समाधिस्थ रहता। कभी-कभी जड़, अंधे और बहरे के समान पृथ्वी पर विचरण करता। इस प्रकार का जीवन व्यतीत करता हुआ वह एक दिन वन में गया। वहाँ उसने देखा की दावानल धधक रहा है। मननशील पृषध्र अपनी इन्द्रियों को उसी अग्नि में भस्म करके परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो गया।

मनु का सबसे छोटा पुत्र था कवि। विषयों से वह अत्यन्त निःस्पृह था। वह राज्य छोड़कर अपने बन्धुओं के साथ वन में चला गया और अपने हृदय में स्वयंप्रकाश परमात्मा को विराजमान पर किशोर अवस्था में ही परमपद को प्राप्त हो गया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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