श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 1-15

प्रथम स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना और अर्जुन का द्वारका से लौटना

सूत जी कहते हैं- स्वजनों से मिलने के बाद पुण्यश्लोक भगवान श्रीकृष्ण अब क्या करना चाहते हैं- यह जानने के लिये अर्जुन द्वारका गये हुए थे। कई महीने बीतत जाने पर भी अर्जुन वहाँ से लौटकर नहीं आये। धर्मराज युधिष्ठिर को बड़े भयंकर अपशकुन दीखने लगे। उन्होंने देखा, काल की गति बड़ी विकट हो गयी है। जिस समय जो ऋतु होनी चाहिये, उस समय वह नहीं होती और उनकी क्रियाएँ भी उलटी ही होती हैं। लोग बड़े क्रोधी, लोभी और असत्य परायण हो गये हैं। अपने जीवन-निर्वाह के लिये लोग पापपूर्ण व्यापार करने लगे हैं। सारा व्यवहार कपट से भरा हुआ होता है, यहाँ तक कि मित्रता में भी छल मिला रहता है; पिता-माता, सगे-सम्बन्धी, भाई और पति-पत्नी में भी झगड़ा-टंटा रहने लगा है। कलिकाल के आ जाने से लोगों का स्वभाव ही लोभ, दम्भ आदि अधर्म से अभिभूत हो गया है और प्रकृति में भी अत्यन्त अरिष्टसूचक अपशकुन होने लगे हैं, यह सब देखकर युधिष्ठिर ने अपने छोटे भाई भीमसेन से कहा।

युधिष्ठिर ने कहा- भीमसेन! अर्जुन को हमने द्वारका इसलिये भेजा था कि वह वहाँ जाकर, पुण्यश्लोक भगवान श्रीकृष्ण क्या कर रहे हैं- इसका पता लगा आये और सम्बन्धियों से मिल भी आये। तब से सात महीने बीत गये; किन्तु तुम्हारे छोटे भाई अब तक नहीं लौट रहे हैं। मैं ठीक-ठीक यह नहीं समझ पाता हूँ कि उनके न आने का क्या कारण है। कहीं देवर्षि नारद के द्वारा बतलाया हुआ वह समय तो नहीं आ पहुँचा है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने लीला-विग्रह का संवरण करना चाहते हैं? उन्हीं भगवान की कृपा से हमें यह सम्पत्ति, राज्य, स्त्री, प्राण, कुल, संतान, शत्रुओं पर विजय और स्वर्गादि लोकों का अधिकार प्राप्त हुआ है।

भीमसेन! तुम तो मनुष्यों में व्याघ्र के समान बलवान् हो; देखो तो सही- आकाश में उल्कापातादि, पृथ्वी में भुकम्पादि और शरीरों में रोगादि कितने भयंकर अपशकुन हो रहे हैं। इनसे इस बात की सूचना मिलती है कि शीघ्र ही हमारी बुद्धि को मोह में डालने वाला कोई उत्पात होने वाला है। प्यारे भीमसेन! मेरी बायीं जाँघ, आँख और भुजा बार-बार फड़क रही है। हृदय जोर से धड़क रहा है। अवश्य ही बहुत जल्दी कोई अनिष्ट होने वाला है। देखो, यह सियारिन उदय होते ही सूर्य की ओर मुँह करके रो रही है। अरे! उसके मुँह से तो आग भी निकल रही है। यह कुत्ता बिलकुल निर्भय-सा होकर मेरी ओर देखकर चिल्ला रहा है। भीमसेन! गौ आदि अच्छे पशु मुझे अपने बायें करके जाते हैं और गधे आदि बुरे पशु मुझे अपने दाहिने कर देते हैं। मेरे घोड़े आदि वाहन मुझे रोते हुए दिखायी देते हैं। यह मृत्यु का दूत पेडुखी, उल्लू और उसका प्रतिपक्षी कौआ रात को अपने कर्ण-कठोर शब्दों से मेरे मन को कँपाते हुए विश्व को सूना कर देना चाहते हैं। दिशाएँ धुँधली हो गयी हैं, सूर्य और चन्द्रमा के चारों ओर बार-बार मण्डल बैठते हैं। यह पृथ्वी पहाड़ों के साथ काँप उठती है, बादल बड़े जोर-जोर से गरजते हैं और जहाँ तहाँ बिजली भी गिरती ही रहती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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