श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 1-12

अष्टम स्कन्ध: पञ्चदशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


राजा बलि की स्वर्ग पर विजय

राजा परीक्षित ने पूछा- भगवन्! श्रीहरि स्वयं ही सबके स्वामी हैं। फिर उन्होंने दीन-हीन की भाँति राजा बलि से तीन पग पृथ्वी क्यों माँगी? तथा जो कुछ वे चाहते थे, वह मिल जाने पर भी उन्होंने बलि को बाँधा क्यों? मेरे हृदय में इस बात का बड़ा कौतुहल है कि स्वयं परिपूर्ण यज्ञेश्वर भगवान् के द्वारा याचना और निरपराध का बन्धन-ये दोनों ही कैसे सम्भव हुए? हम लोग यह जानना चाहते हैं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जब इन्द्र ने बलि को पराजित करके उनकी सम्पत्ति छीन ली और उनके प्राण भी ले लिये, तब भृगुनन्दन शुक्राचार्य ने उन्हें अपनी संजीवनी विद्या से जीवित कर दिया। इस पर शुक्राचार्य जी के शिष्य महात्मा बलि ने अपना सर्वस्व उनके चरणों पर चढ़ा दिया और वे तन-मन से गुरुजी के साथ ही समस्त भृगुवंशी ब्राह्मणों की सेवा करने लगे। इससे प्रभावशाली भृगुवंशी ब्राह्मण उन पर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने स्वर्ग पर विजय प्राप्त करने की इच्छा वाले बलि का महाभिषेक की विधि से अभिषेक करके उनसे विश्वजित् नाम का यज्ञ कराया। यज्ञ की विधि से हविष्यों के द्वारा जब अग्नि देवता की पूजा की गयी, तब यज्ञ कुण्ड में से सोने की चद्दर से मढ़ा हुआ एक बड़ा सुन्दर रथ निकला। फिर इन्द्र के घोड़ों-जैसे हरे रंग के घोड़े और सिंह के चिह्न से युक्त रथ पर लगाने की ध्वजा निकली। साथ ही सोने के पत्र से मढ़ा हुआ दिव्य धनुष, कभी खाली न होने वाले दो अक्षय तरकश और दिव्य कवच भी प्रकट हुए। दादा प्रह्लाद जी ने उन्हें एक ऐसी माला दी, जिसके फूल कभी कुम्हलाते न थे तथा शुक्राचार्य ने एक शंख दिया।

इस प्रकार ब्राह्मणों की कृपा से युद्ध की सामग्री प्राप्त करके उनके द्वारा स्वस्तिवाचन हो जाने पर राजा बलि ने उन ब्राह्मणों की प्रदक्षिणा की और नमस्कार किया। इसके बाद उन्होंने प्रह्लाद जी से सम्भाषण करके उनके चरणों में नमस्कार किया। फिर वे भृगुवंशी ब्राह्मणों के दिये हुए दिव्य रथ पर सवार हुए। जब महारथी राजा बलि ने कवच धारण कर धनुष, तलवार, तरकश आदि शस्त्र ग्रहण कर लिये और दादा की दी हुई सुन्दर माला धारण कर ली, तब उनकी बड़ी शोभा हुई। उनकी भुजाओं में सोने के बाजूबंद और कानों में मकराकृति कुण्डल जगमगा रहे थे। उनके कारण रथ पर बैठे हुए वे ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानो अग्निकुण्ड में अग्नि प्रज्वलित हो रही हो। उनके साथ उन्हीं के समान ऐश्वर्य, बल और विभूति वाले दैत्य सेनापति अपनी-अपनी सेना लेकर हो लिये। ऐसा जान पड़ता था मानो वे आकाश को पी जायेंगे और अपने क्रोध भरे प्रज्वलित नेत्रों से समस्त दिशाओं को, क्षितिज को भस्म कर डालेंगे।

राजा बलि ने इस बहुत बड़ी आसुरी सेना को लेकर उसका युद्ध के ढंग से संचालन किया तथा आकाश और अन्तरिक्ष को कँपाते हुए सकल ऐश्वर्यों से परिपूर्ण इन्द्रपुरी अमरावती पर चढ़ाई की। देवताओं की राजधानी अमरावती में बड़े सुन्दर-सुन्दर नन्दनवन आदि उद्यान और उपवन हैं। उन उद्यानों और उपवनों में पक्षियों के जोड़े चहकते रहते हैं। मधु लोभी भौंरे मतवाले होकर गुनगुनाते रहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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