श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 24 श्लोक 1-16

अष्टम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


भगवान के मत्स्यावतार की कथा

राजा परीक्षित ने पूछा- 'भगवान के कर्म बड़े अद्भुत हैं। उन्होंने एक बार अपनी योगमाया से मत्स्यावतार धारण करके बड़ी सुन्दर लीला की थी, मैं उनके उसी आदि-अवतार की कथा सुनना चाहता हूँ। भगवन्! मत्स्ययोनि एक तो यों ही लोकनिन्दित है, दूसरे तमोगुणी और असह्य परतन्त्रता से युक्त भी है। सर्वशक्तिमान् होने पर भी भगवान ने कर्मबन्धन में बँधे हुए जीव की तरह यह मत्स्य का रूप क्यों धारण किया? भगवन्! महात्माओं के कीर्तनीय भगवान का चरित्र समस्त प्राणियों को सुख देने वाला है। आप कृपा करके उनकी वह सब लीला हमारे सामने पूर्ण रूप से वर्णन कीजिये।'

सूत जी कहते हैं- शौनकादि ऋषियों! जब राजा परीक्षित ने भगवान श्रीशुकदेव जी से यह प्रश्न किया, तब उन्होंने विष्णु भगवान का वह चरित्र जो उन्होंने मत्स्यावतार धारण करके किया था, वर्णन किया।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! यों तो भगवान सबके एकमात्र प्रभु हैं; फिर भी वे गौ, ब्राह्मण, देवता, साधु, वेद, धर्म और अर्थ की रक्षा के लिये शरीर धारण किया करते हैं। वे सर्वशक्तिमान प्रभु वायु की तरह नीचे-ऊँचे, छोटे-बड़े सभी प्राणियों में अन्तर्यामी रूप से लीला करते रहते हैं। परन्तु उन-उन प्राणियों के बुद्धिगत गुणों से वे छोटे-बड़े या ऊँचे-नीचे नहीं हो जाते। क्योंकि वे वास्तव में समस्त प्राकृत गुणों से रहित-निर्गुण हैं। परीक्षित! पिछले कल्प के अन्त में ब्रह्मा जी के सो जाने के कारण ब्राह्म नामक नैमित्तिक प्रलय हुआ था। उस समय भूर्लोक आदि सारे लोक समुद्र में डूब गये थे। प्रलयकाल आ जाने के कारण ब्रह्मा जी को नींद आ रही थी, वे सोना चाहते थे। उसी समय वेद उनके मुख से निकल पड़े और उनसे पास ही रहने वाले हयग्रीव नामक बली दैत्य ने उन्हें योगबल से चुरा लिया। सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीहरि ने दानवराज हयग्रीव की यह चेष्टा जान ली। इसलिये उन्होंने मत्स्यावतार ग्रहण किया।

परीक्षित! उस समय सत्यव्रत नाम के एक बड़े उदार एवं भगवत्परायण राजर्षि केवल जल पीकर तपस्या कर रहे थे। वही सत्यव्रत वर्तमान महाकल्प में विवस्वान् (सूर्य) के पुत्र श्राद्धदेव के नाम से विख्यात हुए और उन्हें भगवान ने वैवस्वत मनु बना दिया। एक दिन वे राजर्षि कृतमाला नदी में जल से तर्पण कर रहे थे। उसी समय उनकी अंजलि के जल में एक छोटी-सी मछली आ गयी। परीक्षित! द्रविड़ देश के राजा सत्यव्रत ने अपनी अंजलि में आयी हुई मछली को जल के साथ ही फिर से नदी में डाल दिया। उस मछली ने बड़ी करुणा के साथ परमदयालु राजा सत्यव्रत से कहा- ‘राजन! आप बड़े दीन दयालु हैं। आप जानते ही हैं कि जल में रहने वाले जन्तु अपनी जाति वालों को भी खा डालते है। मैं उनके भय से अत्यन्त व्याकुल हो रही हूँ। आप मुझे फिर इसी नदी के जल में क्यों छोड़ रहे हैं?'

राजा सत्यव्रत को इस बात का पता नहीं था कि स्वयं भगवान मुझ पर प्रसन्न होकर कृपा करने के लिये मछली के रूप में पधारे हैं। इसलिये उन्होंने उस मछली की रक्षा का मन-ही-मन संकल्प किया। राजा सत्यव्रत ने उस मछली की अत्यन्त दीनता से भरी बात सुनकर बड़ी दया से उसे अपने पात्र के जल में रख दिया और अपने आश्रम पर ले आये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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