श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 18 श्लोक 1-17

नवम स्कन्ध: अथाष्टादशोऽध्याय: अध्याय

Prev.png

श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


ययाति-चरित्र

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जैसे शरीरधारियों के छः इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही नहुष के छः पुत्र थे। उनके नाम थे- यति, ययाति, संयाति, आयति, वियति और कृति। नहुष अपने बड़े पुत्र यति को राज्य देना चाहते थे। परन्तु उसने स्वीकार नहीं किया; क्योंकि वह राज्य पाने का परिणाम जानता था। राज्य एक ऐसी वस्तु है कि जो उसके दाव-पेंच और प्रबन्ध आदि में भीतर प्रवेश कर जाता है, वह अपने आत्मस्वरूप को नहीं समझ सकता। जब इन्द्र पत्नी शची से सहवास करने की चेष्टा करने के कारण नहुष को ब्राह्मणों ने इन्द्रपद से गिरा दिया और अजगर बना दिया, तब राजा के पद पर ययाति बैठे। ययाति ने अपने चार छोटे भाइयों को चार दिशाओं में नियुक्त कर दिया और स्वयं शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा को पत्नी के रूप में स्वीकार करके पृथ्वी की रक्षा करने लगा।

राजा परीक्षित ने पूछा- 'भगवन्! भगवान् शुक्राचार्य जी तो ब्राह्मण थे और ययाति क्षत्रिय। फिर ब्राह्मण-कन्या और क्षत्रिय-वर का प्रतिलोम (उलटा) विवाह कैसे हुआ?'

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन! दानवराज वृषपर्वा की एक बड़ी मानिनी कन्या थी। उसका नाम था शर्मिष्ठा। वह एक दिन अपनी गुरुपुत्री देवयानी और हजारों सखियों के साथ अपनी राजधानी के श्रेष्ठ उद्यान में टहल रही थी। उस उद्यान में सुन्दर-सुन्दर पुष्पों से लदे हुए अनेकों वृक्ष थे। उसमें एक बड़ा ही सुन्दर सरोवर था। सरोवर में कमल खिले हुए थे और उन पर बड़े ही मधुर स्वर से भौंरे गुंजार कर रहे थे। उसकी ध्वनि से सरोवर का तट गूँज रहा था। जलाशय के पास पहुँचने पर उन सुन्दरी कन्याओं ने अपने-अपने वस्त्र तो घाट पर रख दिये और उस तालाब में प्रवेश करके वे एक-दूसरे पर जल उलीच-उलीचकर क्रीड़ा करने लगीं।

उसी समय उधर से पार्वती जी के साथ बैल पर चढ़े हुए भगवान् शंकर आ निकले। उनको देखकर सब-की-सब कन्याएँ सकुचा गयीं और उन्होंने झटपट सरोवर से निकलकर अपने-अपने वस्त्र पहन लिये। शीघ्रता के कारण शर्मिष्ठा ने अनजान में देवयानी के वस्त्र को अपना समझकर पहन लिया। इस पर देवयानी क्रोध के मारे आग-बबूला हो गयी। उसने कहा- ‘अरे, देखो तो सही, इस दासी ने कितना अनुचित काम कर डाला! राम-राम, जैसे कुतिया यज्ञ का हविष्य उठा ले जाये, वैसे ही इसने मेरे वस्त्र पहन लिये हैं। जिन ब्राह्मणों ने अपने तपोबल से इस संसार की सृष्टि की है, जो परमपुरुष परमात्मा के मुखरूप हैं, जो अपने हृदय में निरन्तर ज्योतिर्मय परमात्मा को धारण किये रहते हैं और जिन्होंने सम्पूर्ण प्राणियों के कल्याण के लिये वैदिक मार्ग का निर्देश किया है, बड़े-बड़े लोकपाल तथा देवराज इन्द्र-ब्रह्मा आदि भी जिनके चरणों की वन्दना और सेवा करते हैं-और तो क्या, लक्ष्मी जी के एकमात्र आश्रय परापावन विश्वात्मा भगवान् भी जिनकी वन्दना और स्तुति करते हैं-उन्हीं ब्राह्मणों में हम सबसे श्रेष्ठ भृगुवंशी हैं और इसका पिता प्रथम तो असुर है, फिर हमारा शिष्य है। इस पर भी इस दुष्टा ने जैसे शूद्र वेद पढ़ ले, उसी तरह हमारे कपड़ों को पहन लिया है’।

जब देवयानी इस प्रकार गाली देने लगी, तब शर्मिष्ठा क्रोध से तिलमिला उठी। वह चोट खायी हुई नागिन के समान लंबी साँस लेने लगी। उसने अपने दाँतों से होठ दबाकर कहा- 'भिखारिन! तू इतना बहक रही है। तुझे कुछ अपनी बात का भी पता है? जैसे कौए और कुत्ते हमारे दरवाजे पर रोटी के टुकड़ों के लिये प्रतीक्षा करते हैं, वैसे ही क्या तुम भी हमारे घरों की ओर नहीं ताकती रहतीं’। शर्मिष्ठा ने इस प्रकार बड़ी कड़ी-कड़ी बात कहकर गुरुपुत्री देवयानी का तिरस्कार किया और क्रोधवश उसके वस्त्र छीनकर उसे कुएँ में ढकेल दिया।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः