श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 12 श्लोक 1-15

सप्तम स्कन्ध: द्वादशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमों के नियम

नारद जी कहते हैं- धर्मराज! गुरुकुल में निवास करने वाला ब्रह्मचारी अपनी इन्द्रियों को वश में रखकर दास के समान अपने को छोटा माने, गुरुदेव के चरणों में सुदृढ़ अनुराग रखे और उनके हित के कार्य करता रहे। सायंकाल और प्रातःकाल गुरु, अग्नि, सूर्य और श्रेष्ठ देवताओं की उपासना करे और मौन होकर एकाग्रता से गायत्री का जप करता हुआ दोनों समय की सन्ध्या करे। गुरु जी जब बुलावें, तभी पूर्णतया अनुशासन में रहकर उनसे वेदों का स्वाध्याय करे। पाठ के प्रारम्भ और अन्त में उनके चरणों में सिर टेककर प्रणाम करे। शास्त्र की आज्ञा के अनुसार मेखला, मृगचर्म, वस्त्र, जटा, दण्ड, कमण्डलु, यज्ञोपवीत तथा हाथ में कुश धारण करे। सायंकाल और प्रातःकाल भिक्षा माँगकर लावे और उसे गुरु जी को समर्पित कर दे। वे आज्ञा दें, तब भोजन करे और यदि कभी आज्ञा ने दें तो उपवास कर ले। अपने शील की रक्षा करे। थोड़ा खाये। अपने कामों को निपुणता के साथ करे। श्रद्धा रखे और इन्द्रियों को अपने वश में रखे।

स्त्री और स्त्रियों के वश में रहने वालों के साथ जितनी आवश्यकता हो, उतना ही व्यवहार करे। जो गृहस्थ नहीं है और ब्रह्मचर्य का व्रत लिये हुए है, उसे स्त्रियों की चर्चा से ही अलग रहना चाहिये। इन्द्रियाँ बड़ी बलवान् हैं। ये प्रयत्नपूर्वक साधन करने वालों के मन को भी क्षुब्ध करके खींच लेती हैं। युवक ब्रह्मचारी युवती गुरुपत्नियों से बाल सुलझवाना, शरीर मलवाना, स्नान करवाना, उबटन लगवाना इत्यादि कार्य न करावे। स्त्रियाँ आग के समान हैं और पुरुष घी के घड़े के समान। एकान्त में अपनी कन्या के साथ भी न रहना चाहिये। जब वह एकान्त में न हो, तब भी आवश्यकता के अनुसार ही उसके पास रहना चाहिये। जब तक यह जीव आत्मसाक्षात्कार के द्वारा इन देह और इन्द्रियों को प्रतीतिमात्र निश्चय करके स्वतन्त्र नहीं हो जाता, तब तक ‘मैं पुरुष हूँ और यह स्त्री है’- यह द्वैत नहीं मिटता और तब तक यह भी निश्चित है कि ऐसे पुरुष यदि स्त्री के संसर्ग में रहेंगे, तो उनकी उनमें भोग्य बुद्धि हो ही जायेगी।

ये सब शील-रक्षादि गुण गृहस्थ के लिये और संन्यासी के लिये भी विहित हैं। गृहस्थ के लिये गुरुकुल में रहकर गुरु की सेवा-शुश्रूषा वैकल्पिक है, क्योंकि ऋतुगमन के कारण उसे वहाँ से अलग भी होना पड़ता है। जो ब्रह्मचर्य का व्रत धारण करें, उन्हें चाहिये कि वे सूरमा या तेल न लगावें, उबटन न मलें। स्त्रियों के चित्र न बनावें। मांस या मद्य से कोई सम्बन्ध न रखें। फूलों के हार, इत्र-फुलेल, चन्दन और आभूषणों का त्याग कर दें।

इस प्रकार गुरुकुल में निवास करके द्विजाति को अपनी शक्ति और आवश्यकता के अनुसार वेद, उनके अंग- शिक्षा, कल्प आदि और उपनिषदों का अध्ययन तथा ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। फिर यदि सामर्थ्य हो तो गुरु को मुँह माँगी दक्षिणा देनी चाहिये। इसके बाद उनकी आज्ञा से गृहस्थ, वानप्रस्थ अथवा संन्यास-आश्रम में प्रवेश करे या आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए उसी आश्रम में रहे। यद्यपि भगवान् स्वरूपतः सर्वत्र एकरस स्थित हैं, अतएव उनका कहीं प्रवेश करना या निकलना नहीं हो सकता- फिर भी अग्नि, गुरु, आत्मा और समस्त प्राणियों में अपने आश्रित जीवों के साथ वे विशेष रूप से विराजमान हैं। इसलिये उन पर सदा दृष्टि जमी रहनी चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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