श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 1-16

सप्तम स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


यतिधर्म का निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद

नारद जी कहते हैं- धर्मराज! यदि वानप्रस्थी में ब्रह्मविचार का सामर्थ्य हो, तो शरीर के अतिरिक्त और सब कुछ छोड़कर वह संन्यास ले ले; तथा किसी भी व्यक्ति, वस्तु, स्थान और समय की अपेक्षा न रखकर एक गाँव में एक ही रात ठहरने का नियम लेकर पृथ्वी पर विचरण करे। यदि वह वस्त्र पहने तो केवल कौपीन, जिससे उसके गुप्त अंग ढक जायें और जब तक कोई आपत्ति न आवे, तब तक दण्ड तथा अपने आश्रम के चिह्नों के सिवा अपनी त्यागी हुई किसी भी वस्तु को ग्रहण न करे।

संन्यासी को चाहिये कि वह समस्त प्राणियों का हितैषी हो, शान्त रहे, भगवत्परायण रहे और किसी का आश्रय न लेकर अपने-आप में ही रमे एवं अकेला ही विचरे। इस सम्पूर्ण विश्व को कार्य और कारण से अतीत परमात्मा में अध्यस्त जाने और कार्य-कारणस्वरूप इस जगत् में ब्रह्मस्वरूप अपने आत्मा को परिपूर्ण देखे। आत्मदर्शी संन्यासी सुषुप्ति और जागरण की सन्धि में अपने अपने स्वरूप का अनुभव करे और बन्धन तथा मोक्ष दोनों ही केवल माया है, वस्तुतः कुछ नहीं-ऐसा समझे। न तो शरीर की अवश्य होने वाली मृत्यु का अभिनन्दन करे और न अनिश्चित जीवन का। केवल समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और नाश के कारण काल की प्रतीक्षा करता रहे। असत्य- अनात्म वस्तु का प्रतिपादन करने वाले शास्त्रों से प्रीति न करे। अपने जीवन-निर्वाह के लिये कोई जीविका न करे, केवल वाद-विवाद के लिये कोई तर्क न करे और संसार में किसी का पक्ष न ले। शिष्य-मण्डली न जुटावे, बहुत-से ग्रन्थों का अभ्यास न करे, व्याख्यान न दे और बड़े-बड़े कामों का आरम्भ न करे। शान्त, समदर्शी एवं महात्मा संन्यासी के लिये किसी आश्रम का बन्धन धर्म का कारण नहीं है। वह अपने आश्रम के चिह्नों को धारण करे, चाहे छोड़ दे। उसके पास कोई आश्रम का चिह्न न हो, परन्तु वह आत्मानुसन्धान में मग्न हो। हो तो अत्यन्त विचारशील, परन्तु जान पड़े पागल और बालक की तरह। वह अत्यन्त प्रतिभाशील होने पर भी साधारण मनुष्यों की दृष्टि से ऐसा जान पड़े मानो कोई गूँगा है।

युधिष्ठिर! इस विषय में महात्मा लोग एक प्राचीन इतिहास का वर्णन करते हैं। वह है दत्तात्रेय मुनि और भक्तराज प्रह्लाद का संवाद। एक बार भगवान् के परम प्रेमी प्रह्लाद जी कुछ मन्त्रियों के साथ लोगों के हृदय की बात जानने की इच्छा से लोकों में विचरण कर रहे थे। उन्होंने देखा कि सह्य पर्वत की तलहटी में कावेरी नदी के तट पर पृथ्वी पर ही एक मुनि पड़े हुए हैं। उनके शरीर की निर्मल ज्योति अंगों के धूलि-धूसरित होने के कारण ढकी हुई थी। उनके कर्म, आकार, वाणी और वर्ण-आश्रम आदि के चिह्नों से लोग यह नहीं समझ सकते थे कि वे कोई सिद्ध पुरुष हैं या नहीं। भगवान् के परम प्रेमी भक्त प्रह्लाद जी ने अपने सिर से उनके चरणों का स्पर्श करके प्रणाम किया और विधिपूर्वक उनकी पूजा करके जानने की इच्छा से यह प्रश्न किया- ‘भगवन्! आपका शरीर उद्योगी और भोगी पुरुषों के समान हष्ट-पुष्ट है। संसार का यह नियम है कि उद्योग करने वालों को धन मिलता है, धन वालों को ही भोग प्राप्त होता है और भोगियों का ही शरीर ह्रष्ट-पुष्ट होता है और कोई दूसरा कारण तो हो नहीं सकता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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