श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 34 श्लोक 1-14

दशम स्कन्ध: चतुस्त्रिंश अध्याय (पूर्वार्ध)

Prev.png


श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुस्त्रिंश अध्याय श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! एक बार नन्दबाबा आदि गोपों ने शिवरात्रि के अवसर पर बड़ी उत्सुकता, कौतूहल और आनन्द से भरकर बैलों से जुती हुई गाड़ियों पर सवार होकर अम्बिका वन की यात्रा की। राजन! वहाँ उन लोगों ने सरस्वती नदी में स्नान किया और सर्वान्तर्यामी पशुपति भगवान शंकर जी का तथा भगवती अम्बिका जी का बड़ी भक्ति से अनेक प्रकार की सामग्रियों के द्वारा पूजन किया। वहाँ उन्होंने आदरपूर्वक गौएँ, सोना, वस्त्र, मधु और मधुर अन्न ब्राह्मणों को दिये तथा उनको खिलाया-पिलाया। वे केवल यही चाहते थे कि इनसे देवाधिदेव भगवान शंकर हम पर प्रसन्न हों। उस दिन परम भाग्यवान नन्द-सुनन्द आदि गोपों ने उपवास कर रखा था, इसलिये वे लोग केवल जल पीकर रात के समय सरस्वती नदी के तट पर ही बेखट के सो गये।

उस अम्बिका वन में एक बड़ा भारी अजगर रहता था। उस दिन वह भूखा भी बहुत था। दैववश वह उधर से ही आ निकला और उसने सोये हुए नन्द जी को पकड़ लिया। अजगर के पकड़ लेने पर नन्दराय जी चिल्लाने लगे - ‘बेटा कृष्ण! कृष्ण! दौड़ो, दौड़ो! देखो बेटा! यह अजगर मुझे निगल रहा है। मैं तुम्हारी शरण में हूँ। जल्दी मुझे इस संकट से बचाओ।' नन्दबाबा का चिल्लाना सुनकर सब-के-सब गोप एकाएक उठ खड़े हुए और उन्हें अजगर के मुँह में देखकर घबड़ा गये। अब वे लुकाठियों [1] से उस अजगर को मारने लगे। किन्तु लुकाठियों से मारे जाने और जलने पर भी अजगर ने नन्दबाबा को छोड़ा नहीं।

इतने में ही भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण ने वहाँ पहुँचकर अपने चरणों से उस अजगर को छू दिया। भगवान के श्रीचरणों का स्पर्श होते ही अजगर के सारे अशुभ भस्म हो गये और वह उसी क्षण अजगर का शरीर छोड़कर विद्याधरार्चित सर्वांगसुन्दर रूपवान बन गया। उस पुरुष के शरीर से दिव्य ज्योति निकल रही थी। वह सोने के हार पहने हुए था। जब वह प्रणाम करने के बाद हाथ जोड़कर भगवान के सामने खड़ा हो गया, तब उन्होंने उससे पूछा - ‘तुम कौन हो? तुम्हारे अंग-अंग से सुन्दरता फूटी पड़ती है। तुम देखने में बड़े अद्भुत जान पड़ते हो। तुम्हें यह अत्यन्त निन्दनीय अजगर योनि क्यों प्राप्त हुई थी? अवश्य ही तुम्हें विवश होकर इसमें आना पड़ा होगा।'

अजगर के शरीर से निकला हुआ पुरुष बोला - भगवन! मैं पहले विद्याधर था। मेरा नाम था सुदर्शन। मेरे पास सौन्दर्य तो था ही, लक्ष्मी भी बहुत थी। इससे मैं विमान पर चढ़कर यहाँ-से-वहाँ घूमता रहता था। एक दिन मैंने अंगिरा गोत्र के कुरूप ऋषियों को देखा। अपने सौन्दर्य के घमण्ड से मैंने उनकी हँसी उड़ायी। मेरे इस अपराध से कुपित होकर उन लोगों ने मुझे अजगर योनि में जाने का शाप दे दिया। यह मेरे पापों का ही फल था। उन कृपालु ऋषियों ने अनुग्रह के लिये ही मुझे शाप दिया था क्योंकि यह उसी का प्रभाव है कि आज चराचर के गुरु स्वयं आपने अपने चरणकमलों से मेरा स्पर्श किया है, इससे मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गये।


Next.png


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अधजली लकड़ियों

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः