श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 1-16

सप्तम स्कन्ध: सप्तमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


प्रह्लाद जी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए नारद जी के उपदेश का वर्णन

नारद जी कहते हैं- युधिष्ठिर! जब दैत्य बालकों ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब भगवान् के परमप्रेमी भक्त प्रह्लाद जी को मेरी बात का स्मरण हो आया। कुछ मुसकराते हुए उन्होंने उनसे कहा।

प्रह्लाद जी ने कहा- जब हमारे पिताजी तपस्या करने के लिये मन्दराचल पर चले गये, तब इन्द्रादि देवताओं ने दानवों से युद्ध करने का बहुत बड़ा उद्योग किया। वे इस प्रकार कहने लगे कि जैसे चींटियाँ साँप को चाट जाती हैं, वैसे ही लोगों को सताने वाले पापी हिरण्यकशिपु को उसका पाप ही खा गया। जब दैत्य सेनापतियों को देवताओं की भारी तैयारी का पता चला, तब उनका साहस जाता रहा। वे उनका सामना नहीं कर सके। मार खाकर स्त्री, पुत्र, मित्र, गुरुजन, महल, पशु और साज-सामान की कुछ चिन्ता न करके वे अपने प्राण बचाने के लिये बड़ी जल्दी में सब-के-सब इधर-उधर भाग गये। अपनी जीत चाहने वाले देवताओं ने राजमहल में लूट-खसोट मचा दी। यहाँ तक कि इन्द्र ने राजरानी मेरी माता कयाधु को भी बन्दी बना लिया। मेरी मा भय से घबराकर कुररी पक्षी की भाँति रो रही थी और इन्द्र उसे बलात् लिये जा रहे थे। दैववश देवर्षि नारद उधर आ निकले और उन्होंने मार्ग में मेरी माँ को देख लिया। उन्होंने कहा- ‘देवराज! यह निरपराध है। इसे ले जाना उचित नहीं। महाभाग! इस सती-साध्वी परनारी का तिरस्कार मत करो। इसे छोड़ दो, तुरंत छोड़ दो!'

इन्द्र ने कहा- 'इसके पेट में देवद्रोही हिरण्यकशिपु का अत्यन्त प्रभावशाली वीर्य है। प्रसवपर्यन्त यह मेरे पास रहे, बालक हो जाने पर उसे मारकर मैं इसे छोड़ दूँगा।'

नारद जी ने कहा- ‘इसके गर्भ में भगवान् का साक्षात् परमप्रेमी भक्त और सेवक, अत्यन्त बली और निष्पाप महात्मा है। तुममें उसको मारने की शक्ति नहीं है।’

देवर्षि नारद की यह बात सुनकर उसका सम्मान करते हुए इन्द्र ने मेरी माता को छोड़ दिया और फिर इसके गर्भ में भगवद्भक्त है, इस भाव से उन्होंने मेरी माता की प्रदक्षिणा की तथा अपने लोक में चले गये।

इसके बाद देवर्षि नारद जी मेरी माता को अपने आश्रम पर लिवा ले गये और उसे समझा-बुझाकर कहा कि- ‘बेटी! जब तक तुम्हारा पति तपस्या करके लौटे, तब तक तुम यहीं रहो।’ ‘जो आज्ञा’ कहकर वह निर्भयता से देवर्षि नारद के आश्रम पर ही रहने लगी और तब तक रही, जब तक मेरे पिता घोर तपस्या से लौटकर नहीं आये। मेरी गर्भवती माता मुझ गर्भस्थ शिशु की मंगल कामना से और इच्छित समय पर (अर्थात् मेरे पिता के लौटने के बाद) सन्तान उत्पन्न करने की कामना से बड़े प्रेम तथा भक्ति के साथ नारद जी की सेवा-शुश्रूषा करती रही।

देवर्षि नारद जी बड़े दयालु और सर्वसमर्थ हैं। उन्होंने मेरी माँ को भागवत धर्म का रहस्य और विशुद्ध ज्ञान- दोनों का उपदेश किया। उपदेश करते समय उनकी दृष्टि मुझ पर भी थी। बहुत समय बीत जाने के कारण और स्त्री होने के कारण भी मेरी माता को तो अब उस ज्ञान की स्मृति नहीं रही, परन्तु देवर्षि की विशेष कृपा होने के कारण मुझे उसकी विस्मृति नहीं हुई।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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