सप्तम स्कन्ध: अथैकादशोऽध्याय: अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- भगवन्मय प्रह्लाद जी के साधु समाज में सम्मानित पवित्र चरित्र सुनकर संतशिरोमणि युधिष्ठिर को बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने नारद जी से और भी पूछा। युधिष्ठिर जी ने कहा- भगवन्! अब मैं वर्ण और आश्रमों के सदाचार के साथ मनुष्यों के सनातन धर्म का श्रवण करना चाहता हूँ, क्योंकि धर्म से ही मनुष्य को ज्ञान, भगवत्प्रेम और साक्षात् परमपुरुष भगवान् की प्राप्ति होती है। आप स्वयं प्रजापति ब्रह्मा जी के पुत्र हैं और नारद जी! आपकी तपस्या, योग एवं समाधि के कारण वे अपने दूसरे पुत्रों की अपेक्षा आपका अधिक सम्मान भी करते हैं। आपके समान नारायण-परायण, दयालु, सदाचारी और शान्त ब्राह्मण धर्म के गुप्त-से-गुप्त रहस्य को जैसा यथार्थरूप से जानते हैं, दूसरे लोग वैसा नहीं जानते। नारद जी ने कहा- युधिष्ठिर! अजन्मा भगवान् ही समस्त धर्मों के मूल कारण हैं। वही प्रभु चराचर जगत् के कल्याण के लिये धर्म और दक्षपुत्री मूर्ति के द्वारा अपने अंश से अवतीर्ण होकर बदरिकाश्रम में तपस्या कर रहे हैं। उन नारायण भगवान् को नमस्कार करके उन्हीं के मुख से सुने हुए सनातन धर्म का मैं वर्णन करता हूँ। युधिष्ठिर! सर्वदेवस्वरूप भगवान् श्रीहरि, उनका तत्त्व जानने वाले महर्षियों की स्मृतियाँ और जिससे आत्मग्लानि न होकर आत्मप्रसाद की उपलब्धि हो, वह कर्म धर्म के मूल हैं। युधिष्ठिर! धर्म के ये तीस लक्षण शास्त्रों में कहे गये हैं- सत्य, दया, तपस्या, शौच, तितिक्षा, उचित-अनुचित का विचार, मन का संयम, इन्द्रियों का संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, सन्तोष, समदर्शी महात्माओं की सेवा, धीरे-धीरे सांसारिक भोगों की चेष्टा से निवृत्ति, मनुष्य के अभिमानपूर्ण प्रयत्नों का फल उलटा ही होता है- ऐसा विचार, मौन, आत्मचिन्तन, प्राणियों को अन्न आदि का यथायोग्य विभाजन, उनमें और विशेष करके मनुष्यों में अपने आत्मा तथा इष्टदेव का भाव, संतों के परमआश्रय भगवान् श्रीकृष्ण के नाम- गुण-लीला आदि का श्रवण, कीर्तन, स्मरण, उनकी सेवा, पूजा और नमस्कार; उनके प्रति दास्य, सख्य और आत्मसमर्पण- यह तीस प्रकार का आचरण सभी मनुष्यों का परम धर्म है। इसके पालन से सर्वात्मा भगवान् प्रसन्न होते हैं। धर्मराज! जिनके वंश में अखण्ड रूप से संस्कार होते आये हैं और जिन्हें ब्रह्मा जी ने संस्कार के योग्य स्वीकार किया है, उन्हें द्विज कहते हैं। जन्म और कर्म से शुद्ध द्विजों के लिये यज्ञ, अध्ययन, दान और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों के विशेष कर्मों का विधान है। अध्ययन, अध्यापन, दान लेना, दान देना और यज्ञ करना, यज्ञ कराना- ये छः कर्म ब्राह्मण के हैं। क्षत्रिय को दान नहीं लेना चाहिये। प्रजा की रक्षा करने वाले क्षत्रिय का जीवन-निर्वाह ब्राह्मण के सिवा और सबसे यथायोग्य कर तथा दण्ड (जुर्माना) आदि के द्वारा होता है। वैश्य को सर्वदा ब्राह्मण वंश का अनुयायी रहकर गो रक्षा, कृषि एवं व्यापार के द्वारा अपनी जीविका चलानी चाहिये। शूद्र का धर्म है द्विजातियों की सेवा। उसकी जीवका का निर्वाह उसका स्वामी करता है। ब्राह्मण के जीवन-निर्वाह के साधन चार प्रकार के हैं- वार्ता[1] शालीन[2] यायावर[3] और शिलोञ्छन[4] इसमें से पीछे-पीछे की वृत्तियाँ अपेक्षाकृत श्रेष्ठ हैं। निम्न वर्ण का पुरुष बिना आपत्ति काल के उत्तम वर्ण की वृत्तियों का अवलम्बन न करे। क्षत्रिय दान लेना छोड़कर ब्राह्मण की शेष पाँचों वृत्तियों का अवलम्बन ले सकता है। आपत्ति काल में सभी सब वृत्तियों को स्वीकार कर सकते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यज्ञाध्ययनादि कराकर धन लेना।
- ↑ बिना माँगे जो कुछ मिल जाये, उसी में निर्वाह करना।
- ↑ नित्यप्रति धान्यादि माँग लाना।
- ↑ किसान के खेत काटकर अन्न घर को ले जाने पर पृथ्वी पर जो कण पड़े रह जाते हैं, उन्हें ‘शिल’ तथा बाजार में पड़े हुए अन्न के दानों को ‘उच्छ’ कहते हैं। उन शिल और उञ्छों को बीनकर अपना निर्वाह करना ‘शिलोञ्छन’ वृत्ति है।
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