श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 23 श्लोक 1-5

पंचम स्कन्ध: त्रयोविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद


शिशुमार चक्र का वर्णन

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! सप्तर्षियों से तेरह लाख योजन के ऊपर ध्रुवलोक है। इसे भगवान् विष्णु का परमपद कहते हैं। यहाँ उत्तानपाद के पुत्र परमभगवद्भक्त ध्रुव जी विराजमान हैं। अग्नि, इन्द्र, प्रजापति कश्यप और धर्म-ये सब एक साथ अत्यन्त आदरपूर्वक इनकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं। अब भी कल्पपर्यन्त रहने वाले लोक इन्हीं के आधार स्थित हैं। इनका इस लोक का प्रभाव हम पहले (चौथे स्कन्ध में) वर्णन कर चुके हैं। सदा जागते रहने वाले अव्यक्तगति भगवान् काल के द्वारा जो ग्रह-नक्षत्रादि ज्योतिर्गण निरन्तर घुमाये जाते हैं, भगवान् ने ध्रुवलोक को ही उन सबके आधार स्तम्भरूप से नियुक्त किया है। अतः यह एक ही स्थान में रहकर सदा प्रकाशित होता है।

जिस प्रकर दायँ चलाने के समय अनाज को खूँदने वाले पशु छोटी, बड़ी और मध्यम रस्सी में बँधकर क्रमशः निकट, दूर और मध्य में रहकर खंभे के चारों ओर मण्डल बाँधकर घूमते रहते हैं, उसी प्रकार सारे नक्षत्र और ग्रहगण बाहर-भीतर के क्रम से इस कालचक्र में नियुक्त होकर ध्रुवलोक का ही आश्रय लेकर वायु की प्रेरणा से कल्प के अन्त तक घूमते रहते हैं। जिस प्रकार मेघ और बाज आदि पक्षी अपने कर्मों की सहायता से वायु के अधीन रहकर आकाश में उड़ते रहते हैं, उसी प्रकार ये ज्योतिर्गण भी प्रकृति और पुरुष के संयोगवश अपने-अपने कर्मों के अनुसार चक्कर काटते रहते हैं, पृथ्वी पर नहीं गिरते।

कोई-कोई पुरुष भगवान् की योगमाया के आधार पर स्थित इस ज्योतिश्चक्र का शिशुमार (सूँस) के रूप में वर्णन करते हैं। यह शिशुमार कुण्डली मारे हुए है और इनका मुख नीचे की ओर हैं। इसकी पूँछ के सिरे पर ध्रुव स्थित है। पूँछ के मध्य भाग में प्रजापति, अग्नि, इन्द्र और धर्म है। पूँछ की जड़ में धाता और विधाता हैं। इसके कटिप्रदेश में सप्तर्षि हैं। यह शिशुमार दाहिनी ओर को सिकुड़कर कुण्डली मारे हुए है। ऐसी स्थिति में अभिजित् से लेकर पुनर्वसुपर्यन्त जो उत्तरायण के चौदह नक्षत्र हैं, वे इसके दाहिने भाग में हैं और पुष्य से लेकर उत्तराषाढ़ापर्यन्त जो दक्षिणायन के चौदह नक्षत्र हैं, वे बायें भाग में हैं। लोक में भी जब शिशुमार कुण्डलाकार होता है, तब उसके दोनों ओर के अंगों की संख्या समान रहती है, उसी प्रकार यहाँ नक्षत्र-संख्या में भी समानता है। इसकी पीठ में अजवीथी (मूल, पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा नाम के तीन नक्षत्रों का समूह) है और उदर में आकाशगंगा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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