श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 24 श्लोक 1-15

चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


पृथु की वंश परम्परा और प्रचेताओं को भगवान् रुद्र का उपदेश

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! महाराज पृथु के बाद उनके पुत्र परमयशस्वी विजिताश्व राजा हुए। उनका अपने छोटे भाइयों पर बड़ा स्नेह था, इसलिये उन्होंने चारों को एक-एक दिशा का अधिकार सौंप दिया। राजा विजिताश्व ने हर्यक्ष को पूर्व, धूम्रकेश को दक्षिण, वृक को पश्चिम और द्रविण को उत्तर दिशा का राज्य दिया। उन्होंने इन्द्र से अन्तर्धान होने की शक्ति प्राप्त की थी, इसलिये उन्हें ‘अन्तर्धान’ भी कहते थे। उनकी पत्नी का नाम शिखण्डिनी था। उससे उनके तीन सुपुत्र हुए। उनके नाम पावक, पवमान और शुचि थे।

पूर्वकाल में वसिष्ठ जी का शाप होने से उपर्युक्त नाम के अग्नियों ने ही उनके रूप में जन्म लिया था। आगे चलकर योगमार्ग से ये फिर अग्निरूप हो गये। अन्तर्धान के नभस्वती नाम की पत्नी से एक और पुत्र-रत्न हविर्धान प्राप्त हुआ। महाराज अन्तर्धान बड़े उदार पुरुष थे। जिस समय इन्द्र उनके पिता के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा हरकर ले गये थे, उन्होंने पता लग जाने पर भी उनका वध नहीं किया था। राजा अन्तर्धान ने कर लेना, दण्ड देना, जुरमाना वसूल करना आदि कर्तव्यों को बहुत कठोर एवं दूसरों के लये कष्टदायक समझकर एक दीर्घकालीन यज्ञ में दीक्षित होने के बहाने अपना राज-काज छोड़ दिया। यज्ञकार्य में लगे रहने पर भी उन आत्मज्ञानी राजा ने भक्त भयंजन पूर्णतम परमात्मा की आराधना करके सुदृढ़ समाधि के द्वारा भगवान् के दिव्य लोक को प्राप्त किया।

विदुर जी! हविर्धान की पत्नी हविर्धानी ने बर्हिषद्, गय, शुक्ल, कृष्ण, सत्य और जितव्रत नाम के छः पुत्र पैदा किये। कुरुश्रेष्ठ विदुर जी! इनमें हविर्धान के पुत्र महाभाग बर्हिषद् यज्ञादि कर्मकाण्ड और योगाभ्यास में कुशल थे। उन्होंने प्रजापति का पद प्राप्त किया। उन्होंने एक स्थान के बाद दूसरे स्थान में लगातार इतने यज्ञ किये कि यह सारी भूमि पूर्व की ओर अग्रभाग करके फैलाये हुए कुशों से पट गयी थी (इसी से आगे चलकर वे ‘प्राचीनबर्हि’ नाम से विख्यात हुए)।

राजा प्राचीनबर्हि ने ब्रह्मा जी के कहने से समुद्र की कन्या शतद्रुति से विवाह किया था। सर्वांगसुन्दरी किशोरी शतद्रुति सुन्दर वस्त्राभूषणों से सज-धजकर विवाह-मण्डप में जब भाँवर देने के लिये घूमने लगी, तब स्वयं अग्निदेव भी मोहित होकर उसे वैसे ही चाहने लगे जैसे शुकी को चाहा था। नवविवाहिता शतद्रुति ने अपने नूपुरों की झनकार से ही दिशा-विदिशाओं के देवता, असुर, गन्धर्व, मुनि, सिद्ध, मनुष्य और नाग-सभी को वश में कर लिया था। शतद्रुति के गर्भ से प्राचीनबर्हि के प्रचेता नाम के दस पुत्र हुए। वे सब बड़े ही धर्मज्ञ तथा एक-से नाम और आचरण वाले थे। जब पिता ने उन्हें सन्तान उत्पन्न करने का आदेश दिया, तब उन सब ने तपस्या करने के लिये समुद्र में प्रवेश किया। वहाँ दस हजार वर्ष तक तपस्या करते हुए उन्होंने तप का फल देने वाले श्रीहरि की आराधना की। घर से तपस्या करने के लिये जाते समय मार्ग में श्रीमहादेव जी ने उन्हें दर्शन देकर कृपापूर्वक इस जिस तत्त्व का उपदेश दिया था, उसी का वे एकाग्रतापूर्वक ध्यान, जप और पूजन करते रहे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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