श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 1-8

पंचम स्कन्ध: नवम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद


भरत जी का ब्राह्मण कुल में जन्म

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! आंगिरस गोत्र में शम, दम, तप, स्वाध्याय, वेदाध्ययन, त्याग (अतिथि आदि को अन्न देना), सन्तोष, तितिक्षा, विनय, विद्या (कर्म विद्या), अनसूया (दूसरों के गुणों में दोष न ढूँढना), आत्मज्ञान (आत्मा के कर्तृप्त और भोक्तृत्व का ज्ञान) एवं आनन्द (धर्मपालनजनित सुख) सभी गुणों से सम्पन्न एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे। उनकी बड़ी स्त्री से उन्हीं के समान विद्या, शील, आचार, रूप और उदारता आदि गुणों वाले नौ पुत्र हुए तथा छोटी पत्नी से एक ही साथ एक पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ। इन दोनों में जो पुरुष था, वह परम भागवत राजर्षिशिरोमणि भरत ही थे। वे मृग शरीर का परित्याग करके अन्तिम जन्म में ब्राह्मण हुए थे- ऐसा महापुरुषों का कथन है। इस जन्म में भी भगवान् की कृपा से अपनी पूर्वजन्म परम्परा का स्मरण रहने के कारण, वे इस आशंका से कि कहीं फिर कोई विघ्न उपस्थित न हो जाये, अपने स्वजनों के संग से भी बहुत डरते थे। हर समय जिनका श्रवण, स्मरण और गुणकीर्तन सब प्रकार के कर्म बन्धन को काट देता है, श्रीभगवान् के उन युगल चरणकमलों को ही हृदय में धारण किये रहते तथा दूसरों की दृष्टि में अपने को पागल, मूर्ख, अंधे और बहरे के समान दिखाते।

पिता का तो उनमें भी वैसा ही स्नेह था। इसलिये ब्राह्मण देवता ने अपने पागल पुत्र के भी शास्त्रानुसार समावर्तनपर्यन्त विवाह से पूर्व के सभी संस्कार करने के विचार से उनका उपनयन-संस्कार किया। यद्यपि वे चाहते नहीं थे तो भी ‘पिता का कर्तव्य है कि पुत्र को शिक्षा दे’ इस शास्त्रविधि के अनुसार उन्होंने इन्हें शौच-आचमन आदि आवश्यक कर्मों कि शिक्षा दी। किन्तु भरत जी तो पिता के सामने ही उनके उपदेश के विरुद्ध आचरण करने लगते थे। पिता चाहते थे कि वर्षाकाल में इसे वेदाध्ययन आरम्भ करा दूँ। किन्तु वसन्त और ग्रीष्म ऋतु के चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़- चार महीनों तक पढ़ाते रहने पर भी वे उन्हें व्याहृति और शिरोमन्त्रप्रवण के सहित त्रिपदा गायत्री भी अच्छी तरह याद न करा सके। ऐसा होने पर भी अपने इस पुत्र में उनका आत्मा के समान अनुराग था। इसलिये उसकी प्रवृत्ति न होने पर भी वे ‘पुत्र को अच्छी तरह शिक्षा देनी चाहीये’ इस अनुचित आग्रह से उसे शौच, वेदाध्ययन, व्रत, नियम तथा गुरु और अग्नि की सेवा आदि ब्रह्मचर्याश्रम के आवश्यक नियमों की शिक्षा देते ही रहे। किन्तु अभी पुत्र को सुशिक्षित देखने का उनका मनोरथ पूरा न हो पाया था और स्वयं भी भगवद्भजनरूप अपने मुख्य कर्तव्य से असावधान रहकर केवल घर के धंधों में ही व्यस्त थे कि सदा सजग रहने वाले काल भगवान् ने आक्रमण करके उनका अन्त कर दिया। तब उनकी छोटी भार्या अपने गर्भ से उत्पन्न हुए दोनों बालक अपनी सौत को सौंपकर स्वयं सती होकर पतिलोक को चली गयी।

भरत जी के भाई कर्मकाण्ड को सबसे श्रेष्ठ समझते थे। वे ब्रह्मज्ञानरूप पराविद्या से सर्वथा अनभिज्ञ थे। इसलिये उन्हें भरत जी का प्रभाव भी ज्ञात नहीं था, वे उन्हें निरा मूर्ख समझते थे। अतः पिता के परलोक सिधारने पर उन्होंने उन्हें पढ़ाने-लिखाने का आग्रह छोड़ दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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