श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 46 श्लोक 1-12

दशम स्कन्ध: षट्चत्वारिंश अध्याय (पूर्वार्ध)

Prev.png

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्चत्वारिंश अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद
उद्धव जी की ब्रजयात्रा

श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! उद्धव जी वृष्णिवंशीयों में एक प्रधान पुरुष थे। वे साक्षात ब्रहस्पति जी के शिष्य और परम बुद्धिमान थे। उनकी महिमा के सम्बन्ध में इससे पढ़कर और कौन-सी बात कही जा सकती है कि वे भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे सखा तथा मन्त्री भी थे। एक दिन शरणागतों के सारे दुःख हर लेने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय भक्त और एकान्त प्रेमी उद्धव जी का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा -

‘सौम्यस्वभाव उद्धव! तुम व्रज में जाओ। वहाँ मेरे पिता-माता नन्दबाबा और यशोदा मैया हैं, उन्हें आनन्दित करो; और गोपियाँ मेरे विरह की व्याधि से बहुत ही दुःखी हो रही हैं, उन्हें मेरे सन्देश सुनाकर उस वेदना से मुक्त करो।

प्यारे उद्धव! गोपियों का मन नित्य-निरन्तर मुझमें ही लगा रहता है। उनके प्राण, उनका जीवन, उनका सर्वस्व मैं ही हूँ। मेरे लिये उन्होंने अपने पति-पुत्र आदि सभी सगे-सम्बन्धियों को छोड़ दिया है। उन्होंने बुद्धि से भी मुझी को अपना प्यारा, अपना प्रियतम - नहीं, नहीं; अपनी आत्मा मान रखा है। मेरा यह व्रत है कि जो लोग मेरे लिये लौकिक और पारलौकिक धर्मों को छोड़ देते हैं, उनका भरण-पोषण मैं स्वयं करता हूँ।

प्रिय उद्धव! मैं उन गोपियों का परम प्रियतम हूँ। मेरे यहाँ चले आने से वे मुझे दूरस्थ मानती हैं और मेरा स्मरण करके अत्यन्त मोहित हो रही हैं, बार-बार मूर्च्छित हो जाती हैं। वे मेरे विरह की व्यथा से विह्वल हो रही हैं, प्रतिक्षण मेरे लिये उत्कण्ठित रहती हैं।

मेरी गोपियाँ, मेरी प्रेयसियाँ इस समय बड़े ही कष्ट और यत्न से अपने प्राणों को किसी प्रकार रख रही हैं। मैंने उनसे कहा था कि ‘मैं आऊँगा।’ वही उनके जीवन का आधार है। उद्धव! और तो क्या कहूँ, मैं ही उनकी आत्मा हूँ। वे नित्य-निरन्तर मुझमें ही तन्मय रहती हैं।'

श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! जब भगवान श्रीकृष्ण ने यह बात कही, तब उद्धव जी बड़े आदर से अपने स्वामी का सन्देश लेकर रथ पर सवार हुए और नन्द गाँव के लिये चल पड़े। परम सुन्दर उद्धव जी सूर्यास्त के समय नन्दबाबा के व्रज में पहुँचे। उस समय जंगल से गौएँ लौट रही थीं। उनके खुरों के आघात से इतनी धूल उड़ रही थी कि उनका रथ ढक गया था।

व्रजभूमि में ऋतुमती गौओं के लिये मतवाले साँड़ आपस में लड़ रहे थे। उनकी गर्जना से सारा व्रज गूँज रहा था। थोड़े दिनों की ब्यायी हुई गौएँ अपने थनों के भारी भार से दबी होने पर भी अपने-अपने बछड़ों की ओर दौड़ रहीं थीं। सफ़ेद रंग के बछड़े इधर-उधर उछल-कूद मचाते हुए बहुत ही भले मालूम होते थे। गाय दुहने की ‘घर-घर’ध्वनि से और बाँसुरियों की मधुर टेर से अब भी व्रज की अपूर्व शोभा हो रही थी।

गोपी और गोप सुन्दर-सुन्दर वस्त्र तथा गहनों से सज-धजकर श्रीकृष्ण तथा बलराम जी के मंगलमय चरित्रों का गान कर रहे थे और इस प्रकार व्रज की शोभा और भी बढ़ गयी थी। गोपों के घरों में अग्नि, सूर्य, अतिथि, गौ, ब्राह्मण और देवता - पितरों की पूजा की हुई थी। धूप की सुगन्ध चारों ओर फ़ैल रही थी और दीपक जगमगा रहे थे। उन घरों को पुष्पों से सजाया गया था। ऐसे मनोहर गृहों से सारा व्रज और भी मनोरम हो रहा था।

Next.png


टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः