श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 1-10

चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्थ अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद


सती का अग्नि प्रवेश

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! इतना कहकर भगवान् शंकर मौन हो गये। उन्होंने देखा कि दक्ष के यहाँ जाने देने अथवा जाने से रोकने-दोनों ही अवस्थाओं में सती के प्राण त्याग की सम्भावना है। इधर, सती जी भी कभी बन्धुजनों को देखने जाने की इच्छा से बाहर आतीं और कभी ‘भगवान् शंकर रुष्ट न हो जायें’ इस शंका से फिर लौट जातीं। इस प्रकार कोई एक बात निश्चित न कर सकने के कारण वे दुविधा में पड़ गयीं-चंचल हो गयीं। बन्धुजनों से मिलने की इच्छा में बाधा पड़ने से वे बड़ी अनमनी हो गयीं। स्वजनों के स्नेहवश उनका हृदय भर आया और वे आँखों में आँसू भरकर अत्यन्त व्याकुल हो रोने लगीं। उनका शरीर थर-थर काँपने लगा और वे अप्रतिमपुरुष भगवान् शंकर की ओर इस प्रकार रोषपूर्ण दृष्टि से देखने लगीं मानो उन्हें भस्म कर देंगी। शोक और क्रोध ने उनके चित्त को बिलकुल बेचैन कर दिया तथा स्त्रीस्वभाव के कारण उनकी बुद्धि मूढ़ हो गयी। जिन्होंने प्रीतिवश उन्हें अपना आधा अंग तक दे दिया था, उन सत्पुरुषों के प्रिय भगवान् शंकर को भी छोड़कर वे लंबी-लंबी साँस लेती हुई अपने माता-पिता के घर चल दीं।

सती को बड़ी फुर्ती से अकेली जाते देख श्रीमहादेव जी के मणिमान् एवं मद आदि हजारों सेवक भगवान के वाहन वृषभराज को आगे कर तथा और भी अनेकों पार्षद और यक्षों को साथ ले बड़ी तेजी से निर्भयतापूर्वक उनके पीछे हो लिये। उन्होंने सती को बैल पर सवार करा दिया और मैना पक्षी, गेंद, दर्पण और कमल आदि खेल की सामग्री, श्वेत छत्र, चँवर और माला आदि राजचिह्न तथा दुन्दुभि, शंख और बाँसुरी आदि गाने-बजाने के सामानों से सुसज्जित हो वे उसके साथ चल दिये।

तदनन्तर सती अपने समस्त सेवकों के साथ दक्ष की यज्ञशाला में पहुँची। वहाँ वेदध्वनि करते हुए ब्राह्मणों में परस्पर होड़ लग रही थी कि सबसे ऊँचे स्वर में कौन बोले; सब ओर ब्रह्मर्षि और देवता विराजमान थे तथा जहाँ-तहाँ मिट्टी, काठ, लोहे, सोने, डाभ और चर्म के पात्र रखे हुए थे। वहाँ पहुँचने पर पिता के द्वारा सती की अवहेलना हुई, यह देख यज्ञकर्ता दक्ष के भय से सती की माता और बहनों के सिवा किसी भी मनुष्य ने उनका कुछ भी आदर-सत्कार नहीं किया। अवश्य ही उनकी माता और बहिनें बहुत प्रसन्न हुईं और प्रेम से गद्गद होकर उन्होंने सती को आदरपूर्वक गले लगाया। किंतु सती जी ने पिता से अपमानित होने के कारण, बहिनों के कुशल-प्रश्न सहित प्रेमपूर्ण वार्तालाप तथा माता और मौसियों के सम्मानपूर्वक दिये हुए उपहार और सुन्दर आसनादि को स्वीकार नहीं किया।

सर्वलोकेश्वरी देवी सती का यज्ञमण्डप में तो अनादर हुआ ही था, उन्होंने यह भी देखा कि उस यज्ञ में भगवान् शंकर के लिये कोई भाग नहीं दिया गया है और पिता दक्ष उनका बड़ा अपमान कर रहा है। इससे उन्हें बहुत क्रोध हुआ; ऐसा जान पड़ता था मानो वे अपने रोष से सम्पूर्ण लोकों को भस्म कर देंगी। दक्ष को कर्ममार्ग के अभ्यास से बहुत घमण्ड हो गया था। उसे शिव जी से द्वेष करते देख जब सती के साथ आये हुए भूत उसे मारने को तैयार हुए तो देवी सती ने उन्हें अपने तेज से रोक दिया और सब लोगों को सुनाकर पिता की निन्दा करते हुए क्रोध से लड़खड़ाती हुई वाणी में कहा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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