श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 22 श्लोक 1-11

अष्टम स्कन्ध: द्वाविंशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


बलि के द्वारा भगवान् की स्तुति और भगवान् का उस पर प्रसन्न होना

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! इस प्रकार भगवान् ने असुरराज बलि का बड़ा तिरस्कार किया और उन्हें धैर्य से विचलित करना चाहा। परन्तु वे तनिक भी विचलित न हुए, बड़े धैर्य से बोले।

दैत्यराज बलि ने कहा- 'देवताओं के आराध्यदेव! आपकी कीर्ति बड़ी पवित्र है। क्या आप मेरी बात को असत्य समझते हैं? ऐसा नहीं है। मैं उसे सत्य कर दिखाता हूँ। आप धोखे में नहीं पड़ेंगे। आप कृपा करके अपना तीसरा पग मेरे सिर पर रख दीजिये। मुझे नरक में जाने का अथवा राज्य से च्युत होने का भय नहीं है। मैं पाश में बँधने अथवा अपार दुःख में पड़ने से भी नहीं डरता। मेरे पास फूटी कौड़ी भी न रहे अथवा आप मुझे घोर दण्ड दें- यह भी मेरे भय का कारण नहीं है। मैं डरता हूँ तो केवल अपनी अपकीर्ति से। अपने पूजनीय गुरुजनों के द्वारा दिया हुआ दण्ड तो जीवमात्र के लिये अत्यन्त वाञ्छनीय है। क्योंकि वैसा दण्ड माता, पिता, भाई और सुहृद् भी मोहवश नहीं दे पाते।

आप छिपे रूप से अवश्य ही हम असुरों को श्रेष्ठ शिक्षा दिया करते हैं, अतः आप हमारे परम गुरु हैं। जब हम लोग धन, कुलीनता, बल आदि के मद से अंधे हो जाते हैं, तब आप उन वस्तुओं को हमसे छीनकर हमें नेत्रदान करते हैं। आपसे हम लोगों का उपकार होता है, उसे मैं क्या बताऊँ? अनन्य भाव से योग करने वाले योगीगण जो सिद्धि प्राप्त करते हैं, वही सिद्धि बहुत-से असुरों को आपके साथ दृढ़ वैर भाव करने से ही प्राप्त हो गयी है। जिनकी ऐसी महिमा, ऐसी अनन्त लीलाएँ हैं, वही आप मुझे दण्ड दे रहे हैं और वरुण पाश से बाँध रहे हैं। इसकी न तो मुझे कोई लज्जा है और न किसी प्रकार की व्यथा ही।

प्रभो! मेरे पितामह प्रह्लाद जी की कीर्ति सारे जगत् में प्रसिद्ध है। वे आपके भक्तों में श्रेष्ठ माने गये हैं। उनके पिता हिरण्यकशिपु ने आपसे वैर-विरोध रखने के कारण उन्हें अनेकों प्रकार के दुःख दिये। परन्तु वे आपके ही परायण रहे, उन्होंने अपना जीवन आप पर ही निछावर कर दिया। उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि शरीर को लेकर क्या करना है, जब यह एक-न-एक दिन साथ छोड़ ही देता है। जो धन-सम्पत्ति लेने के लिये स्वजन बने हुए हैं, उन डाकुओं से अपना स्वार्थ ही क्या है? पत्नी से भी क्या लाभ है, जब वह जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्र में डालने वाली ही है। जब मर ही जाना है, तब घर से मोह करने में भी क्या स्वार्थ है? इन सब वस्तुओं में उलझ जाना तो केवल मेरे पितामह प्रह्लाद जी ने, यह जानते हुए भी कि आप लौकिक दृष्टि से उनके भाई-बन्धुओं के नाश करने वाले शत्रु हैं, फिर आपके ही भयरहित एवं अविनाशी चरणकमलों की शरण ग्रहण की थी। क्यों न हो-वे संसार से परम विरक्त, अगाध बोध सम्पन्न, उदार हृदय एवं संत-शिरोमणि जो हैं। आप उस दृष्टि से मेरे भी शत्रु हैं, फिर भी विधाता ने मुझे बलात् ऐश्वर्य-लक्ष्मी से अलग करके आपके पास पहुँचा दिया है। अच्छा ही हुआ; क्योंकि ऐश्वर्य-लक्ष्मी के कारण जीव की बुद्धि जड़ हो जाती है और वह यह नहीं समझ पाता कि ‘मेरा यह जीवन मृत्यु के पंजे में पड़ा हुआ और अनित्य है’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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