श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 17 श्लोक 1-15

एकादश स्कन्ध: सप्तदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तदश अध्याय श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


वर्णाश्रम-धर्म-निरूपण

उद्धव जी ने कहा- कमलनयन श्रीकृष्ण! आपने पहले वर्णाश्रम-धर्म का पालन करने वालों के लिये और सामान्यतः मनुष्यमात्र के लिये उस धर्म का उपदेश किया था, जिससे आपकी भक्ति प्राप्त होती है। अब आप कृपा करके यह बतलाइये कि मनुष्य किस प्रकार से अपने धर्म का अनुष्ठान करे, जिससे आपके चरणों में उसे भक्ति प्राप्त हो जाये।

प्रभो! महाबाहु माधव! पहले आपने हंसरूप से अवतार ग्रहण करके ब्रह्मा जी को अपने परमधर्म का उपदेश किया था। रिपुदमन! बहुत समय बीत जाने के कारण वह इस समय मर्त्यलोक में प्रायः नहीं-सा रह गया है, क्योंकि आपको उसका उपदेश किये बहुत-दिन हो गये हैं। अच्युत! पृथ्वी में तथा ब्रह्मा की उस सभा में भी, जहाँ सम्पूर्ण वेद मूर्तिमान् होकर विराजमान रहते हैं, आपके अतिरिक्त ऐसा कोई भी नहीं है, जो आपके इस धर्म का प्रवचन, प्रवर्तन अथवा संरक्षण कर सके। इस धर्म के प्रवर्तक, रक्षक और उपदेशक आप ही हैं। आपने पहले जैसे मधु दैत्य को मारकर वेदों की रक्षा की थी, वैसे ही अपने धर्म की भी रक्षा कीजिये। स्वयंप्रकाश परमात्मन्! जब आप पृथ्वी तल से अपनी लीला संवरण कर लेंगे, तब तो इस धर्म का लोप ही हो जायेगा तो फिर उसे कौन बतावेगा? आप समस्त धर्मों के मर्मज्ञ हैं; इसलिये प्रभो! आप उस धर्म का वर्णन कीजिये, जो आपकी भक्ति प्राप्त कराने वाला है। और यह भी बतलाइये कि किसके लिये उसका कैसा विधान है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जब इस प्रकार भक्तशिरोमणि उद्धव जी ने प्रश्न किया, तब भगवान श्रीकृष्ण ने अत्यन्त प्रसन्न होकर प्राणियों के कल्याण के लिये उन्हें सनातन धर्मों का उपदेश दिया।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- प्रिय उद्धव! तुम्हारा प्रश्न धर्ममय है, क्योंकि इससे वर्णाश्रम धर्मी मनुष्यों को परम कल्याणस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। अतः मैं तुम्हें उन धर्मों का उपदेश करता हूँ, सावधान होकर सुनो।

जिस समय इस कल्प का प्रारम्भ हुआ था और पहला सत्ययुग चल रहा था, उस समय सभी मनुष्यों का ‘हंस’ नामक एक ही वर्ण था। उस युग में सब लोग जन्म से ही कृतकृत्य होते थे; इसीलिये उसका एक नाम कृतयुग भी है। उस समय केवल प्रणव ही वेद था आर तपस्या, शौच, दया एवं सत्यरूप चार चरणों से युक्त मैं ही वृषभरूपधारी धर्म था। उस समय के निष्पाप एवं परम तपस्वी भक्तजन मुझ हंसस्वरूप शुद्ध परमात्मा की उपासना करते थे। परम भाग्यवान् उद्धव! सत्ययुग के बाद त्रेतायुग का आरम्भ होने पर मेरे हृदय से श्वास-प्रश्वास के द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद रूप त्रयीविद्या प्रकट हुई और उस त्रयीविद्या से होता, अध्वर्यु और उद्गाता के कर्मरूप तीन भेदों वाले यज्ञ के रूप से मैं प्रकट हुआ। विराट् पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। उनकी पहचान उनके स्वाभावानुसार और आचरण से होती है।

उद्धव जी! विराट् पुरुष भी मैं हूँ; इसलिये मेरे ही ऊरूस्थल से गृहस्थाश्रम, हृदय से ब्रह्मचर्याश्रम, वक्षःस्थल से वानप्रस्थानाश्रम और मस्तक से संन्यासश्रम की उत्पत्ति हुई है। इन वर्ण और आश्रमों के पुरुषों के स्वभाव भी इनके जन्मस्थानों के अनुसार उत्तम, मध्यम और अधम हो गये। अर्थात् उत्तम स्थानों से उत्पन्न होने वाले वर्ण और आश्रमों के स्वभाव उत्तम और अधम स्थानों से उत्पन्न होने वालों के अधम हुए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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