श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 1-17

अष्टम स्कन्ध: नवमोध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


मोहिनी रूप से भगवान् के द्वारा अमृत बाँटा जाना

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! असुर आपस के सद्भाव और प्रेम को छोड़कर एक-दूसरे की निन्दा कर रहे थे और डाकू की तरह एक-दूसरे के हाथ से अमृत का कलश छीन रहे थे। इसी बीच में उन्होंने देखा कि एक बड़ी सुन्दरी स्त्री उनकी ओर चली आ रही है। वे सोचने लगे- ‘कैसा अनुपम सौन्दर्य है। शरीर में से कितनी अद्भुत छटा छिटक रही है! तनिक इसकी नयी उम्र तो देखो!’ बस, अब वे आपस की लाग-डाँट भूलकर उसके पास दौड़ गये। उन लोगों ने काममोहित होकर उससे पूछा- ‘कमलनयनी! तुम कौन हो? कहाँ से आ रही हो? क्या करना चाहती हो? सुन्दरी! तुम किसकी कन्या हो? तुम्हें देखकर हमारे मन में खलबली मच गयी है। हम समझते हैं कि अब तक देवता, दैत्य, सिद्ध, गन्धर्व, चारण और लोकपालों ने भी तुम्हें स्पर्श तक न किया होगा। फिर मनुष्य तो तुम्हें कैसे छू पाते?

सुन्दरी! अवश्य ही विधाता ने दया करके शरीरधारियों की सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं मन को तृप्त करने के लिये तुम्हें यहाँ भेजा है। मानिनी! वैसे हम लोग एक ही जाति के हैं। फिर भी हम सब एक ही वस्तु चाह रहे हैं, इसलिये हममें डाह और वैर की गाँठ पड़ गयी है। सुन्दरी! तुम हमारा झगड़ा मिटा दो। हम सभी कश्यप जी के पुत्र होने के नाते सगे भाई हैं। हम लोगों ने अमृत के लिये बड़ा पुरुषार्थ किया है। तुम न्याय के अनुसार निष्पक्ष भाव से इसे बाँट दो, जिससे फिर हम लोगों में किसी प्रकार का झगड़ा न हो’। असुरों ने जब इस प्रकार प्रार्थना की, तब लीला से स्त्री वेष धारण करने वाले भगवान् ने तनिक हँसकर और तिरछी चितवन से उनकी ओर देखते हुए कहा-

श्रीभगवान् ने कहा- 'आप लोग महर्षि कश्यप के पुत्र हैं और मैं हूँ कुलटा। आप लोग मुझ पर न्याय का भार क्यों डाल रहे हैं? विवेकी पुरुष स्वेच्छाचारिणी स्त्रियों का कभी विश्वास नहीं करते। दैत्यों! कुत्ते और व्यभिचारिणी स्त्रियों की मित्रता स्थायी नहीं होती। वे दोनों ही सदा नये-नये शिकार ढूँढा करते हैं।'

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! मोहिनी की परिहास भरी वाणी से दैत्यों के मन में और भी विश्वास हो गया। उन लोगों ने रहस्यपूर्ण भाव से हँसकर अमृत का कलश मोहिनी के हाथ में दे दिया। भगवान् ने अमृत का कलश अपने हाथ में लेकर तनिक मुसकराते हुए मीठी वाणी से कहा- ‘मैं उचित या अनुचित जो कुछ भी करूँ, वह सब यदि तुम लोगों को स्वीकार हो तो मैं यह अमृत बाँट सकती हूँ’।

बड़े-बड़े दैत्यों ने मोहिनी की यह मीठी बात सुनकर उसकी बारीकी नहीं समझी, इसलिये सबने एक स्वर से कह दिया ‘स्वीकार है।’ इसका कारण यह था कि उन्हें मोहिनी के वास्तविक स्वरूप का पता नहीं था। इसके बाद एक दिन का उपवास करके सबने स्नान किया। हविष्य से अग्नि में हवन किया। गौ, ब्राह्मण और समस्त प्राणियों को घास-चारा, अन्न-धनादि का यथायोग्य दान दिया तथा ब्राह्मणों से स्वस्त्ययन कराया। अपनी-अपनी रुचि के अनुसार सबने नये-नये वस्त्र धारण किये और इसके बाद सुन्दर-सुन्दर आभूषण धारण करके सब-के-सब उन कुशासनों पर बैठ गये, जिनका अगला हिस्सा पूर्व की ओर था। जब देवता और दैत्य दोनों ही धूप से सुगन्धित, मालाओं और दीपकों से सजे-सजाये भव्य भवन में पूर्व की ओर मुँह करके बैठ गये, तब हाथ में अमृत का कलश लेकर मोहिनी सभामण्डप में आयी। वह एक बड़ी सुन्दर साड़ी पहने हुए थी। नितम्बों के भार के कारण वह धीरे-धीरे चल रही थी। आँखें मद से विह्वल हो रही थीं। कलश के समान स्तन और गजशावक की सूँड़ के समान जंघाएँ थीं। उसके स्वर्ण नूपुर अपनी झनकार से सभा भवन को मुखरित कर रहे थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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