श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 18-29

अष्टम स्कन्ध: नवमोध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 18-29 का हिन्दी अनुवाद


सुन्दर कानों में सोने के कुण्डल थे और उसकी नासिका, कपोल तथा मुख बड़े ही सुन्दर थे। स्वयं परदेवता भगवान् मोहिनी के रूप में ऐसे जान पड़ते थे मानो लक्ष्मी जी की कोई श्रेष्ठ सखी वहाँ आ गयी हो। मोहिनी ने अपनी मुस्कान भरी चितवन से देवता और दैत्यों की ओर देखा, तो वे सब-के-सब मोहित हो गये। उस समय उनके स्तनों पर से अंचल कुछ खिसक गया था। भगवान् ने मोहिनी रूप में यह विचार किया कि असुर तो जन्म से ही क्रूर स्वभाव वाले हैं। इनको अमृत पिलाना सर्पों को दूध पिलाने के समान बड़ा अन्याय होगा। इसलिये उन्होंने असुरों को अमृत में भाग नहीं दिया। भगवान् ने देवता और असुरों की अलग-अलग पंक्तियाँ बना दीं और फिर दोनों को कतार बाँधकर अपने-अपने दल में बैठा दिया। इसके बाद अमृत का कलश हाथ में लेकर भगवान् दैत्यों के पास चले गये। उन्हें हाव-भाव और कटाक्ष से मोहित करके दूर बैठे हुए देवताओं के पास आ गये तथा उन्हें वह अमृत पिलाने लगे, जिसे पी लेने पर बुढ़ापे और मृत्यु का नाश हो जाता है।

परीक्षित! असुर अपनी की हुई प्रतिज्ञा का पालन कर रहे थे। उनका स्नेह भी हो गया था और वे स्त्री से झगड़ने में अपनी निन्दा भी समझते थे। इसलिये वे चुपचाप बैठे रहे। मोहिनी में उनका अत्यन्त प्रेम हो गया था। वे डर रहे थे कि उससे हमारा प्रेम सम्बन्ध टूट न जाये। मोहिनी ने भी पहले उन लोगों का बड़ा सम्मान किया था, इससे वे और भी बँध गये थे। यही कारण है कि उन्होंने मोहिनी को कोई अप्रिय बात नहीं कही।

जिस समय भगवान् देवताओं को अमृत पिला रहे थे, उसी समय राहु दैत्य देवताओं का वेष बनाकर उनके बीच में आ बैठा और देवताओं के साथ उसने भी अमृत पी लिया। परन्तु तत्क्षण चन्द्रमा और सूर्य ने उसकी पोल खोल दी। अमृत पिलाते-पिलाते ही भगवान् ने अपने तीखी धार वाले चक्र से उसका सिर काट डाला। अमृत का संसर्ग न होने से उसका धड़ नीचे गिर गया, परन्तु सिर अमर हो गया और ब्रह्मा जी ने उसे ‘ग्रह’ बना दिया। वही राहु पर्व के दिन (पूर्णिमा और अमावस्या को) वैर-भाव से बदला लेने के लिये चन्द्रमा तथा सूर्य पर आक्रमण किया करता है। जब देवताओं ने अमृत पी लिया, तब समस्त लोकों को जीवनदान करने वाले भगवान् ने बड़े-बड़े दैत्यों के सामने ही मोहिनी रूप त्यागकर अपना वास्तविक रूप धारण कर लिया।

परीक्षित! देखो- देवता और दैत्य दोनों ने एक ही समय एक स्थान पर एक प्रयोजन तथा एक वस्तु के लिये एक विचार से एक ही कर्म किया था, परन्तु फल में बड़ा भेद हो गया। उनमें से देवताओं ने बड़ी सुगमता से अपने परिश्रम का फल-अमृत प्राप्त कर लिया, क्योंकि उन्होंने भगवान् के चरणकमलों की रज का आश्रय लिया था। परन्तु उससे विमुख होने के कारण परिश्रम करने पर भी असुरगण अमृत से वंचित ही रहे।

मनुष्य अपने प्राण, धन, कर्म, मन और वाणी आदि से शरीर एवं पुत्र आदि के लिये जो कुछ करता है-वह व्यर्थ ही होता है; क्योंकि उसके मूल में भेद बुद्धि बनी रहती है। परन्तु उन्हीं प्राण आदि वस्तुओं के द्वारा भगवान् के लिये जो कुछ किया जाता है, वह सब भेदभाव से रहित होने के कारण अपने शरीर, पुत्र और समस्त संसार के लिये सफल हो जाता है। जैसे वृक्ष की जड़ में पानी देने से उसका तना, टहनियाँ और पत्ते-सब-के-सब सिंच जाते हैं, वैसे ही भगवान् के लिये कर्म करने से वे सबके लिये हो जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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