श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 9-17

द्वितीय स्कन्ध: सप्तम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 9-17 का हिन्दी अनुवाद


कुमार्गगामी वेन का ऐश्वर्य और पौरुष ब्राह्मणों के हुंकाररूपी वज्र से जलकर भस्म हो गया। वह नरक में गिरने लगा। ऋषियों की प्रार्थना पर भगवान् ने उसके शरीर मन्थन से पृथु के रूप में अवतार धारण कर उसे नरकों से उबारा और इस प्रकार ‘पुत्र’ शब्द को चरितार्थ किया। उसी अवतार में पृथ्वी को गाय बनाकर उन्होंने उससे जगत् के लिये समस्त ओषधियों का दोहन किया।

राजा नाभि की पत्नी सुदेवी के गर्भ से भगवान् ने ऋषभ देव के रूप में जन्म लिया। इस अवतार में समस्त आसक्तियों से रहित रहकर, अपनी इन्द्रियों और मन को अत्यन्त शान्त करके एवं अपने स्वरूप में स्थित होकर समदर्शी के रूप में उन्होंने जड़ों की भाँति योगचर्या का आचरण किया। इस स्थिति को महर्षि लोग परमहंस पद अथवा अवधूतचर्या करते हैं। इसके बाद स्वयं उन्हीं यज्ञपुरुष ने मेरे यज्ञ में स्वर्ण के समान कान्ति वाले हयग्रीव के रूप में अवतार ग्रहण किया। भगवान् का यह विग्रह, वेदमय, यज्ञमय और सर्वदेवमय है। उन्हीं की नासिका से श्वास के रूप में वेदवाणी प्रकट हुई। चाक्षुष मन्वन्तर के अन्त में भावी मनु सत्यव्रत ने मत्स्यरूप में भगवान् को प्राप्त किया था। उस समय पृथ्वीरूप नौका के आश्रय होने के कारण वे ही समस्त जीवों के आश्रय बने। प्रलय के उस भयंकर जल में मेरे मुख से गिरे हुए वेदों को लेकर वे उसी में विहार करते रहे।

जब मुख्य-मुख्य देवता और दानव अमृत की प्राप्ति के लिये क्षीरसागर को मथ रहे थे, तब भगवान् ने कच्छप के रूप में अपनी पीठ पर पर मंदराचल धारण किया। उस समय पर्वत के घूमने के कारण उसकी रगड़ से उनकी पीठ की खुजलाहट थोड़ी मिट गयी, जिससे वे कुछ क्षणों तक सुख की नींद सो सके। देवताओं का महान् भय मिटाने के लिये उन्होंने नृसिंह का रूप धारण किया। फड़कती हुई भौंहों और तीखी दाढ़ों से उनका मुख बड़ा भयावना लगता था। हिरण्यकशिपु उन्हें देखते ही हाथ में गदा लेकर उन पर टूट पड़ा। इस पर भगवान् नृसिंह ने दूर से ही उसे पकड़कर अपनी जाँघों पर डाल लिया और उसके छटपटाते रहने पर भी अपने नखों से उसका पेट फाड़ डाला।

बड़े भारी सरोवर में महाबली ग्राह ने गजेन्द्र का पैर पकड़ लिया। जब बहुत थककर वह घबरा गया, तब उसने सूँड़ में कमल लेकर भगवान् को पुकारा- ‘हे आदि पुरुष! हे समस्त लोकों के स्वामी! हे श्रवणमात्र से कल्याण करने वाले!’ उसकी पुकार सुनकर अनन्तशक्ति भगवान् चक्रपाणि गरुड़ की पीठ पर चढ़कर वहाँ आये और अपने चक्र से उन्होंने ग्राह का मस्तक उखाड़ डाला। इस प्रकार कृपा परवश भगवान् ने अपने शरणागत गजेन्द्र की सूँड़ पकड़कर उस विपत्ति से उसका उद्धार किया। भगवान् वामन अदिति के पुत्रों में सबसे छोटे थे, परन्तु गुणों की दृष्टि से वे सबसे बड़े थे। क्योंकि यज्ञ पुरुष भगवान् ने इस अवतार में बलि के संकल्प छोड़ते ही सम्पूर्ण लोकों को अपने चरणों से ही नाप लिया था। वामन बनकर उन्होंने तीन पग पृथ्वी के बहाने बलि से सारी पृथ्वी ले तो ली, परन्तु इससे यह बात सिद्ध कर दी कि सन्मार्ग पर चलने वाले पुरुषों को याचना के सिवा और किसी उपाय से समर्थ पुरुष भी अपने स्थान से नहीं हटा सकते, ऐश्वर्य से च्युत नहीं कर सकते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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