अष्टम स्कन्ध: सप्तमोऽध्याय: अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 23-32 का हिन्दी अनुवाद
धर्म भी आपका ही स्वरूप है। आप ही ‘अ, उ, म्,’ इन तीनों अक्षरों से युक्त प्रणव हैं अथवा त्रिगुणात्मिक प्रकृति हैं-ऐसा वेदवादी महात्मा कहते हैं। सर्वदेवस्वरूप अग्नि आपका मुख है। तीनों लोकों के अभ्युदय करने वाले शंकर! यह पृथ्वी आपका चरणकमल है। आप अखिल देवस्वरूप हैं। यह काल आपकी गति है, दिशाएँ कान हैं और वरुण रसनेन्द्रिय है। आकाश नाभि है, वायु श्वास है, सूर्य नेत्र हैं और जल वीर्य है। आपका अहंकार नीचे-ऊँचे सभी जीवों का आश्रय है। चन्द्रमा मन है और प्रभो! स्वर्ग आपका सिर है। वेदस्वरूप भगवन्! समुद्र आपकी कोख हैं। पर्वत हड्डियों हैं। सब प्रकार की ओषधियाँ और घास आपके रोम हैं। गायत्री आदि छन्द आपकी सातों धातुएँ हैं और सभी प्रकार के धर्म आपके हृदय हैं। स्वामिन्! सद्योजातादि पाँच उपनिषद् ही आपके तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात, वामदेव और ईशान नामक पाँच मुख हैं। उन्हीं के पदच्छेद से अड़तीस कलात्मक मन्त्र निकले हैं। आप जब समस्त प्रपंच से उपरत होकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाते हैं, तब उसी स्थिति का नाम होता है ‘शिव’। वास्तव में वही स्वयंप्रकाश परमार्थतत्त्व है। अधर्म की दम्भ-लोग आदि तरंगों में आपकी छाया है, जिनसे विविध प्रकार की सृष्टि होती है, वे सत्त्व, रज और तम-आपके तीन नेत्र हैं। प्रभो! गायत्री आदि छन्द रूप सनातन वेद ही आपका विचार है। क्योंकि आप ही सांख्य आदि समस्त शास्त्रों के रूप में स्थित हैं और उनके कर्ता भी हैं। भगवन्! आपका परम ज्योतिर्मय स्वरूप स्वयं ब्रह्म है। उसमें न तो रजोगुण, तमोगुण एवं सत्त्वगुण हैं और न किसी प्रकार का भेदभाव ही। आपके उस स्वरूप को सारे लोकपाल-यहाँ तक कि ब्रह्मा, विष्णु और देवराज इन्द्र भी नहीं जान सकते। आपने कामदेव, दक्ष के यज्ञ, त्रिपुरासुर और कालकूट विष (जिसको आप अभी-अभी अवश्य पी जायेंगे) और अनेक जीवद्रोही असुरों को नष्ट कर दिया है। परन्तु यह कहने से आपकी कोई स्तुति नहीं होती। क्योंकि प्रलय के समय आपका बनाया हुआ यह विश्व आपके ही नेत्र से निकली हुई आग की चिनगारी एवं लपट से जलकर भस्म हो जाता है और आप इस प्रकार ध्यानमग्न रहते हैं कि आपको इसका पता ही नहीं चलता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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