श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 17-30

चतुर्थ स्कन्ध: दशम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद


उनके धनुष से छूटे हुए तीखे तीर यक्ष-राक्षसों के कवचों को भेदकर इस प्रकार उनके शरीरों में घुस गये, जैसे इन्द्र के छोड़े हुए वज्र पर्वतों में प्रवेश कर गये थे।

विदुर जी! महाराज ध्रुव के बाणों से कटे हुए यक्षों के सुन्दर कुण्डलमण्डित मस्तकों से, सुनहरी तालवृक्ष के समान जाँघों से, वलयविभूषित बाहुओं से, हार, भुजबन्ध, मुकुट और बहुमूल्य पगड़ियों से पटी हुई वह वीरों के मन को लुभाने वाली समरभूमि बड़ी शोभा पा रही थी। जो यक्ष किसी प्रकार जीवित बचे, वे क्षत्रियप्रवर ध्रुव जी के बाणों से प्रायः अंग-अंग छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण युद्धक्रीड़ा में सिंह से परास्त हुए गजराज के समान मैदान छोड़कर भाग गये।

नरश्रेष्ठ ध्रुव जी ने देखा कि उस विस्तृत रणभूमि में अब एक भी शत्रु अस्त्र-शस्त्र लिये उनके सामने नहीं है, तो उनकी इच्छा अलकापुरी देखने की हुई; किन्तु वे पुरी के भीतर नहीं गये। ‘ये मायावी क्या करना चाहते हैं, इस बात का मनुष्य को पता नहीं लग सकता’। सारथि से इस प्रकार कहकर वे उस विचित्र रथ में बैठे रहे तथा शत्रु के नवीन आक्रमण की आशंका से सावधान हो गये। इतने में ही उन्हें समुद्र की गर्जना के समान आँधी का भीषण शब्द सुनायी दिया तथा दिशाओं में उठती हुई धूल भी दिखायी दी। एक क्षण में ही सारा आकाश मेघमाला से घिर गया। सब ओर भयंकर गड़गड़ाहट के साथ बिजली चमकने लगी।

निष्पाप विदुर जी! उन बादलों से खून, कफ, पीब, विष्ठा, मूत्र एवं चर्बी की वर्षा होने लगी और ध्रुव जी के आगे आकाश से बहुत-से धड़ गिरने लगे। फिर आकाश में एक पर्वत दिखायी दिया और सभी दिशाओं में पत्थरों की वर्षा के साथ गदा, परिघ, तलवार और मूसल गिरने लगे। उन्होंने देखा कि बहुत-से सर्प वज्र की तरह फुफकार मारते रोषपूर्ण नेत्रों से आग की चिनगारियाँ उगलते आ रहे हैं; झुंड-के-झुंड मतवाले हाथी, सिंह और बाघ भी दौड़े चले आ रहे हैं। प्रलयकाल के समान भयंकर समुद्र अपनी उत्ताल तरंगों से पृथ्वी को सब ओर से डूबाता हुआ बड़ी भीषण गर्जना के साथ उनकी ओर बढ़ रहा है। क्रूरस्वभाव असुरों ने अपनी आसुरी माया से ऐसे ही बहुत-से कौतुक दिखलाये, जिनसे कायरों के मन काँप सकते थे। ध्रुव जी पर असुरों ने अपनी दुस्तर माया फैलायी है, यह सुनकर वहाँ कुछ मुनियों ने आकर उनके लिये मंगल कामना की।

मुनियों ने कहा- उत्तानपादनन्दन ध्रुव! शरणागत-भयभंजन सारंगपाणि भगवान् नारायण तुम्हारे शत्रुओं का संहार करे। भगवान् का तो नाम ही ऐसा है, जिसके सुनने और कीर्तन करने मात्र से मनुष्य दुस्तर मृत्यु के मुख से अनायास ही बच जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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