श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 16 श्लोक 24-36

प्रथम स्कन्ध: षोडश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः षोडश अध्यायः श्लोक 24-36 का हिन्दी अनुवाद


देवि! तुम तो धन-रत्नों की खान हो। तुम अपने क्लेश का कारण, जिससे तुम इतनी दुर्बल हो गयी हो, मुझे बतलाओ। मालूम होता है, बड़े-बड़े बलवानों को भी हरा देने वाले काल ने देवताओं के द्वारा वन्दनीय तुम्हारे सौभाग्य को छीन लिया है।

पृथ्वी ने कहा- धर्म! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, वह सब स्वयं जानते हो। जिन भगवान के सहारे तुम सारे संसार को सुख पहुँचाने वाले अपने चारों चरणों से युक्त थे, जिनमें सत्य, पवित्रता, दया, क्षमा, त्याग, सन्तोष, सरलता, शम, दम, तप, समता, तितिक्षा, उपरति, शास्त्रविचार, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, वीरता, तेज, बल, स्मृति, स्वतन्त्रता, कौशल, कान्ति, धैर्य, कोमलता, निर्भीकता, विनय, शील, साहस, उत्साह, बल, सौभाग्य, गम्भीरता, स्थिरता, आस्तिकता, कीर्ति, गौरव और निरहंकारता- ये उनतालीस अप्राकृत गुण तथा महत्त्वकांक्षी पुरुषों के द्वारा वाञ्छनीय (शरणागत वत्सलता आदि) और भी बहुत-से महान् गुण उनकी सेवा करने के लिये नित्य-निरन्तर निवास करते हैं, एक क्षण के लिये भी उनसे अलग नहीं होते- उन्हीं समस्त गुणों के आश्रय, सौन्दर्यधाम भगवान श्रीकृष्ण ने इस समय इस लोक से अपनी लीला संवरण कर ली और यह संसार पापमय कलियुग की कुदृष्टि का शिकार हो गया। यही देखकर मुझे बड़ा शोक हो रहा है। अपने लिये, देवताओं में श्रेष्ठ तुम्हारे लिये, देवता, पितर, ऋषि, साधु और समस्त वर्णों तथा आश्रमों के मनुष्यों के लिये मैं शोकग्रस्त हो रही हूँ।

जिनका कृपाकटाक्ष प्राप्त करने के लिये ब्रह्मा आदि देवता भगवान के शरणागत होकर बहुत दिनों तक तपस्या करते रहे, वही लक्ष्मी जी अपने निवासस्थान कमलवन का परित्याग करके बड़े प्रेम से जिनके चरणकमलों की सुभग छत्रछाया का सेवन करती हैं, उन्हीं भगवान के कमल, वज्र, अंकुश, ध्वजा आदि चिह्नों से युक्त श्रीचरणों से विभूषित होने के कारण मुझे महान् वैभव प्राप्त हुआ था और मेरी तीनों लोकों से बढ़कर शोभा हुई थी; परन्तु मेरे सौभाग्य का अब अन्त हो गया। भगवान ने मुझ अभागिनी को छोड़ दिया। मालूम होता है, मुझे अपने सौभाग्य पर गर्व हो गया था, इसीलिये उन्होंने मुझे यह दण्ड दिया है।

तुम अपने तीन चरणों के कम हो जाने से मन-ही-मन कुढ़ रहे थे; अतः अपने पुरुषार्थ से तुम्हें अपने ही अन्दर पुनः सब अंगों से पूर्ण एवं स्वस्थ कर देने के लिये वे अत्यन्त रमणीय श्यामसुन्दर विग्रह से यदुवंश में प्रकट हुए और मेरे बड़े भारी भार को, जो असुरवंशी राजाओं की सैकड़ों अक्षौहिणियों के रूप में था, नष्ट कर डाला। क्योंकि वे परम स्वतन्त्र थे। जिन्होंने अपनी प्रेम भरी चितवन, मनोहर मुस्कान और मीठी-मीठी बातों से सत्यभामा आदि मधुमयी मानिनियों के मान के साथ धीरज को भी छीन लिया था और जिनके चरणकमलों के स्पर्श से मैं निरन्तर आनन्द से पुलकित रहती थी, उन पुरुषोत्त भगवान श्रीकृष्ण का विरह भला कौन सह सकती है।

धर्म और पृथ्वी इस प्रकार आपस में बातचीत कर ही रहे थे कि उसी समय राजर्षि परीक्षित पूर्ववाहिनी सरस्वती के तट पर आ पहुँचे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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