श्रीमद्भागवत माहात्म्य अध्याय 6 श्लोक 69-81

श्रीमद्भागवत माहात्म्य षष्ठ अध्याय

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श्रीमद्भागवत माहात्म्य (प्रथम खण्ड) षष्ठ अध्यायः श्लोक 69-81 का हिन्दी अनुवाद

सनकादि कहते हैं—नारदजी! इस प्रकार तुम्हें यह सप्ताह श्रवण की विधि हमने पूरी-पूरी सुना दी, अब और क्या सुनना चाहते हो ? इस श्रीमद्भागवत से भोग और मोक्ष दोनों ही हाथ लग जाते हैं।

सूतजी कहते हैं—शौनकजी! यों कहकर महामुनि सनकादि ने एक सप्ताह तक विधिपूर्वक इस सर्व पाप नाशिनी, परम पवित्र तथा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली भागवत कथा का प्रवचन किया। सब प्राणियों ने नियम पूर्वक इसे श्रवण किया। इसके पश्चात् उन्होंने विधिपूर्वक भगवान् पुरुषोत्तम की स्तुति की। कथा के अन्त में ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को बड़ी पुष्टि मिली और वे तीनों एकदम तरुण होकर सब जीवों का चित्त अपनी ओर आकर्षित करने लगे। अपना मनोरथ पूरा होने से नारदजी को भी बड़ी प्रसन्नता हुई, उनके सारे शरीर में रोमांच हो आया और वे परमानन्द से पूर्ण हो गये। इस प्रकार कथा श्रवण कर भगवान् के प्यारे नारदजी हाथ जोड़कर प्रेमगद्गद वाणी से सनकादि से कहने लगे।

नारदजी ने कहा—मैं धन्य हूँ, आप लोगों ने करुणा करके मुझे बड़ा ही अनुगृहीत किया है, आप मुझे सर्वपापहारी भगवान् श्रीहरि की ही प्राप्ति हो गयी।

तपोधनो! मैं श्रीमद्भागवतश्रवण को ही सब धर्मों से श्रेष्ठ मानता हूँ; क्योंकि जिसके श्रवण से वैकुण्ठ (गोलोक)-विहारी श्रीकृष्ण की प्राप्ति होती है।

सूत जी कहते हैं—शौनकजी! वैष्णव श्रेष्ठ नारदजी यों कह ही रहे थे कि वहाँ घूमते-फिरते योगेश्वर शुकदेवजी आ गये। कथा समाप्त होते ही व्यासनन्दन श्रीशुकदेवजी वहाँ पधारे। सोलह वर्ष की-सी आयु, आत्मलाभ से पूर्ण, ज्ञानरूपी महासागर का संवर्धन करने के लिये चन्द्रमा के समान वे प्रेम से धीरे-धीरे श्रीमद्भागवत का पाठ कर रहे थे। परम तेजस्वी श्रीशुकदेवजी को देखकर सारे सभासद् झटपट खड़े हो गये और उन्हें एक ऊँचे आसन पर बैठाया। फिर देवर्षि नारदजी ने उनका प्रेमपूर्वक पूजन किया। उन्होंने सुखपूर्वक बैठकर कहा—‘आप लोग मेरी निर्मल वाणी सुनिये’।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—रसिक एवं भावुक जन! यह श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्ष का परिपक्व फल है। श्रीशुकदेव रूप शुक के मुख का संयोग होने से अमृत रस से परिपूर्ण है। यह रस-ही-रस है—इसमें न छिलका है न गुठली। यह इसी लोक में सुलभ है। जब तक शरीर में चेतना रहे तब तक आप लोग बार-बार इसका पान करें। महामुनि व्यासदेव ने श्रीमद्भागवत महापुराण की रचना की है। इसमें निष्कपट—निष्काम परम धर्म का निरूपण है। इसमें शुद्धान्तःकरण सत्पुरुषों के जानने-योग्य कल्याणकारी वास्तविक वस्तु का वर्णन है, जिससे तीनों तापों की शान्ति होती है। इसका आश्रय लेने पर दूसरे शास्त्र अथवा साधन की आवश्यकता नहीं रहती। जब कभी पुण्यात्मा पुरुष इसके श्रवण की इच्छा करते हैं, तभी ईश्वर अविलम्ब उनके हृदय में अवरुद्ध हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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