श्रीमद्भागवत माहात्म्य अध्याय 4 श्लोक 68-79

श्रीमद्भागवत माहात्म्य चतुर्थ अध्याय

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श्रीमद्भागवत माहात्म्य (प्रथम खण्ड) चतुर्थ अध्यायः श्लोक 68-79 का हिन्दी अनुवाद

दूसरों की चोरी करना और सब लोगों से द्वेष बढ़ाना उसका स्वभाव बन गया था। छिपे-छिपे वह दूसरों के घरों में आग लगा देता था। दूसरों के बालकों को खेलाने के लिये गोद में लेता और उन्हें चट कुएँ में डाल देता। हिंसा का उसे व्यसन-सा हो गया था। हर समय वह अस्त्र-शस्त्र धारण किये रहता और बेचारे अंधे और दीन-दुःखियों को व्यर्थ तंग करता। चाण्डालों से उसका विशेष प्रेम था; बस, हाथ में फंदा लिये कुत्तों की टोली के साथ शिकार की टोह में घूमता रहता। वेश्याओं के जाल में फँसकर उसने अपने पिता की सारी सम्पत्ति नष्ट कर दी। एक दिन माता-पिता को मार-पीटकर घर के सब बर्तन-भाँड़े उठा ले गया।

इस प्रकार जब सारी सम्पत्ति स्वाहा हो गयी, तब उसका कृपण पिता फूट-फूटकर रोने लगा और बोला—‘इससे तो इसकी माँ का बाँझ रहना ही अच्छा था; कुपुत्र तो बड़ा ही दुःखदायी होता है। अब मैं कहाँ रहूँ ? कहाँ जाऊँ ? मेरे इस संकट को कौन काटेगा ? हाय! मेरे ऊपर तो बड़ी विपत्ति आ पड़ी है, इस दुःख के कारण अवश्य मुझे एक दिन प्राण छोड़ने पड़ेंगे। उसी समय परम ज्ञानी गोकर्णजी वहाँ आये और उन्होंने पिता को वैराग्य का उपदेश करते हुए बहुत समझाया। वे बोले, ‘पिताजी! यह संसार असार है। यह अत्यन्त दुःख रूप और मोह में डालने वाला है। पुत्र किसका ? धन किसका ? स्नेहवान् पुरुष रात-दिन दीपक के समान जलता रहता है। सुख न तो इन्द्र को है और न चक्रवर्ती राजा को ही; सुख है तो केवल विरक्त, एकान्तजीवी मुनि को। ‘यह मेरा पुत्र है’ इस अज्ञान को छोड़ दीजिये। मोह से नरक की प्राप्ति होती है। यह शरीर तो नष्ट होगा ही। इसलिये सब कुछ छोड़कर वन में चले जाइये। गोकर्ण के वचन सुनकर आत्मदेव वन में जाने के लिये तैयार हो गया और उनसे कहने लगा, ‘बेटा! वन में रहकर मुझे क्या करना चाहिये, यह मुझसे विस्तारपूर्वक कहो। मैं बड़ा मूर्ख हूँ, अब तक कर्मवश स्नेहपाश में बँधा हुआ अपंग की भाँति इस घर रूप अँधेरे कुएँ में ही पड़ा रहा हूँ। तुम बड़े दयालु हो, इससे मेरा उद्धार करो’। गोकर्ण ने कहा—पिताजी! यह शरीर हड्डी, मांस और रुधिर का पिण्ड है; इसे आप ‘मैं’ मानना छोड़ दें और स्त्री-पुत्रादि को ‘अपना’ कभी न मानें। इस संसार को रात-दिन क्षणभंगुर देखें, इसकी किसी भी वस्तु को स्थायी समझकर उसमें राग न करें। बस, एकमात्र वैराग्य रस के रसिक होकर भगवान् की भक्ति में लगे रहें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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