श्रीमद्भागवत माहात्म्य चतुर्थ अध्याय
श्रीमद्भागवत माहात्म्य (प्रथम खण्ड) चतुर्थ अध्यायः श्लोक 26-40 का हिन्दी अनुवाद
संन्यासी ने कहा—ब्राह्मणदेवता! इस प्रजा प्राप्ति का मोह त्याग दो। कर्म की गति प्रबल है, विवेक का आश्रय लेकर संसार की वासना छोड़ दो। विप्रवर! सुनो; मैंने इस समय तुम्हारा प्रारब्ध देखकर निश्चय किया है कि सात जन्म तक तुम्हारे कोई सन्तान किसी प्रकार नहीं हो सकती। पूर्वकाल में राजा सगर एवं अंग को सन्तान के कारण दुःख भोगना पड़ा था। ब्राह्मण! अब तुम कुटुम्ब की आशा छोड़ दो। संन्यास में ही सब प्रकार का सुख है। ब्राह्मण ने कहा—महात्मा जी! विवेक से मेरा क्या होगा। मुझे तो बलपूर्वक पुत्र दीजिये; नहीं तो मैं आपके सामने ही शोकमुर्च्छित होकर अपने प्राण त्यागता हूँ। जिसमें पुत्र-स्त्री आदि का सुख नहीं है, ऐसा संन्यास तो सर्वथा नीरस ही है। लोक में सरस तो पुत्र-पौत्रादि से भरा-पूरा गृहस्थाश्रम ही है। ब्राह्मण का ऐसा आग्रह देखकर उन तपोधन ने कहा, ‘विधाता के लेख को मिटाने का हठ करने से राजा चित्रकेतु को बड़ा कष्ट उठाना पड़ा था। इसलिये दैव जिसके उद्दोग को कुचल देता है, उस पुरुष के समान तुम्हें भी पुत्र से सुख नहीं मिल सकेगा। तुमने तो बड़ा हठ पकड़ रखा है और अर्थी के रूप में तुम मेरे सामने उपस्थित हो; ऐसी दशा में मैं तुमसे क्या कहूँ’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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