श्रीमद्भागवत माहात्म्य अध्याय 2 श्लोक 1-15

श्रीमद्भागवत माहात्म्य द्वितीय अध्याय

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श्रीमद्भागवत माहात्म्य (प्रथम खण्ड) द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


भक्ति का दुःख दूर करने के लिये नारदजी का उद्दोग

नारद जी ने कहा—बाले! तुम व्यर्थ ही अपने को क्यों खेद में डाल रही हो? अरे! तुम इतनी चिन्तातुर क्यों हो? भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का चिन्तन करो, उनकी कृपा से तुम्हारा सारा दुःख दूर हो जायगा। जिन्होंने कौरवों के अत्याचार से द्रौपदी की रक्षा की थी और गोपसुन्दरियों को सनाथ किया था, वे श्रीकृष्ण कहीं चले थोड़े ही गये हैं। फिर तुम तो भक्ति हो और सदा उन्हें प्राणों से भी प्यारी हो; तुम्हारे बुलाने पर तो भगवान नीचों के घरों में भी चले जाते हैं। सत्य, त्रेता और द्वापर—इन तीन युगों में ज्ञान और वैराग्य मुक्ति के साधन थे; किन्तु कलियुग में तो केवल भक्ति ही ब्रह्मसायुज्य (मोक्ष)-की प्राप्ति कराने वाली है। यह सोचकर ही परमानन्दचिन्मूर्ति ज्ञानस्वरूप श्रीहरि ने अपने सत्स्वरूप से तुम्हें रचा है; तुम साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र की प्रिया और परम सुन्दरी हो। एक बार जब तुमने हाथ जोड़कर पूछा था कि ‘मैं क्या करूँ ?’ तब भगवान् ने तुम्हें यही आज्ञा दी थी कि ‘मेरे भक्तों का पोषण करो।’। तुमने भगवान् की वह आज्ञा स्वीकार कर ली; इससे तुम पर श्रीहरि बहुत प्रसन्न हुए और तुम्हारी सेवा करने के लिये मुक्ति को तुम्हें दासी के रूप में दे दिया और इन ज्ञान-वैराग्य को पुत्रों के रूप में।

तुम अपने साक्षात् स्वरूप में वैकुण्ठधाम में ही भक्तों का पोषण करती हो, भूलोक में तो तुमने उनकी पुष्टि के लिये केकल छायारूप धारण कर रखा है। तब तुम मुक्ति, ज्ञान और वैराग्य को साथ लिये पृथ्वीतल पर आयीं और सत्ययुग से द्वारपर्यन्त बड़े आनन्द से रहीं। कलियुग में तुम्हारी दासी मुक्ति पाखण्ड रूप रोग से पीड़ित होकर क्षीण होने लगी थी, इसलिये वह तो तुरन्त ही तुम्हारी आज्ञा से वैकुण्ठलोक को चली गयी। इस लोक में भी तुम्हारे स्मरण करने से ही वह आती है और फिर चली जाती है; किंतु इन ज्ञान-वैराग्य को तुमने पुत्र मानकर अपने पास ही रख छोड़ा है। फिर भी कलियुग में इनकी उपेक्षा होने के कारण तुम्हारे ये पुत्र उत्साहहीन और वृद्ध हो गये हैं; फिर भी तुम चिन्ता न करो, मैं इनके नवजीवन का उपाय सोचता हूँ। सुमुखि! कलि के समान कोई भी युग नहीं है, इस युग में मैं तुम्हें घर-घर में प्रत्येक पुरुष के हृदय में स्थापित कर दूँगा। देखो, अन्य सब धर्मों को दबाकर और भक्तिविषयक महोत्सवों को आगे रखकर यदि मैंने लोक में तुम्हारा प्रचार न किया तो मैं श्रीहरि का दास नहीं। इस कलियुग में जो जीव तुमसे युक्त होंगे, वे पापी होने पर भी बेखटके भगवान श्रीकृष्ण के अभय धाम को प्राप्त होंगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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