श्रीमद्भागवत माहात्म्य अध्याय 1 श्लोक 27-43

श्रीमद्भागवत माहात्म्य प्रथम अध्याय

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श्रीमद्भागवत माहात्म्य (प्रथम खण्ड) प्रथम अध्यायः श्लोक 27-43 का हिन्दी अनुवाद


इस समय तो आप उस पुरुष के समान व्याकुल जान पड़ते हैं जिसका सारा धन लुट गया हो; आप-जैसे आसक्ति रहित पुरुषों के लिये यह उचित नहीं है। इसका कारण बताइये।

नारद जी ने कहा—मैं सर्वोत्तम लोक समझकर पृथ्वी में आया था। यहाँ पुष्कर, प्रयाग, काशी, गोदावरी (नासिक), हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, श्रीरंग और सेतुबन्ध आदि कई तीर्थों में मैं इधर-उधर विचरता रहा; किन्तु मुझे कहीं भी मन को संतोष देने वाली शान्ति नहीं मिली। इस समय अधर्म के सहायक कलियुग ने सारी पृथ्वी को पीड़ित कर रखा है। अब यहाँ सत्य, तप, शौच (बाहर-भीतर की पवित्रता), दया, दान आदि कुछ भी नहीं है। बेचारे जीव केवल अपना पेट पालने में लग हुए हैं; वे असत्यभाषी, आलसी, मन्दबुद्धि, भाग्यहीन, उपद्रव ग्रस्त हो गये हैं। जो साधु-संत कहे जाते हैं वे पूरे पाखण्डी हो गये हैं; देखने में तो वे विरक्त हैं, किन्तु स्त्री-धन आदि सभी का परिग्रह करते हैं। घरों में स्त्रियों का राज्य है, साले सलाहकार बने हुए हैं, लोभ से लोग कन्या-विक्रय करते हैं और स्त्री-पुरुषों में कलह मचा रहता है। महात्माओं के आश्रम, तीर्थ और नदियों पर यवनों (विधर्मियों) का अधिकार हो गया है; उन दुष्टों ने बहुत-से देवालय नष्ट कर दिये हैं। इस समय यहाँ न कोई योगी है न सिद्ध है; न ज्ञानी है और न सत्कर्म करने वाला ही है। सारे साधन इस समय कलिरूप दावानल से जलकर भस्म हो गये हैं। इस कलियुग में सभी देशवासी बाजारों में अन्न बेचने लगे हैं, ब्राह्मण लोग पैसा लेकर वेद पढ़ते हैं और स्त्रियाँ वेश्या-वृत्ति से निर्वाह करने लगी हैं।

इस तरह कलियुग के दोष देखता और पृथ्वी पर विचरता हुआ मैं यमुनाजी के तट पर पहुँचा जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण की अनेकों लीलाएँ हो चुकी हैं। मुनिवरों! सुनिये, वहाँ मैंने एक बड़ा आश्चर्य देखा। वहाँ एक युवती स्त्री खिन्न मन से बैठी थी। उसके पास दो वृद्ध पुरुष अचेत अवस्था में पड़े जोर-जोर से साँस ले रहे थे। वह तरुणी उनकी सेवा करती हुई कभी उन्हें चेत कराने का प्रयत्न करती और कभी उनके आगे रोने लगती थी। वह अपने शरीर के रक्षक परमात्मा को दशों दिशाओं में देख रही थी। उसके चारों ओर सैकड़ों स्त्रियाँ उसे पंखा झल रही थीं और बार-बार समझाती जाती थीं। दूर से यह सब चरित देखकर मैं कुतूहलवश उसके पास चला गया। मुझे देखकर वह युवती खड़ी हो गयी और बड़ी व्याकुल होकर कहने लगी।

युवती ने कहा—अजी महात्माजी! क्षण भर ठहर जाइये और मेरी चिन्ता को भी नष्ट कर दीजिये। आपका दर्शन तो संसार के सभी पापों को सर्वथा नष्ट कर देने वाला है। आपके वचनों से मेरे दुःख की भी बहुत कुछ शान्ति हो जायगी। मनुष्य का जब बड़ा भाग्य होता है, तभी आपके दर्शन हुआ करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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