श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 21-28

सप्तम स्कन्ध: नवमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 21-28 का हिन्दी अनुवाद


पुरुष की अनुमति से काल के द्वारा गुणों में क्षोभ होने पर माया मनःप्रधान लिंग शरीर का निर्माण करती है। यह लिंग शरीर बलवान्, कर्ममय एवं अनेक नाम-रूपों में आसक्त-छन्दोमय है। यही अविद्या के द्वारा कल्पित मन, दस इन्द्रिय और पाँच तन्मात्रा-इन सोलह विकाररूप अरों से युक्त संसार-चक्र है।

जन्मरहित प्रभो! आपसे भिन्न रहकर ऐसा कौन पुरुष है, जो इस मनरूप संसारचक्र को पार कर जाये? सर्वशक्तिमान् प्रभो! माया इस सोलह अरों वाले संसारचक्र में डालकर ईख के समान मुझे पेर रही है। आप अपनी चैतन्य शक्ति से बुद्धि के समस्त गुणों को सर्वदा पराजित रखते हैं और कालरूप से सम्पूर्ण साध्य और साधनों को अपने अधीन रखते हैं। मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप मुझे इनसे बचाकर अपनी सन्निधि में खींच लीजिये।

भगवन्! जीनके लिये संसारी लोग बड़े लालायित रहते हैं, स्वर्ग में मिलने वाली समस्त लोकपालों की वह आयु, लक्ष्मी और ऐश्वर्य मैंने खूब देख लिये। जिस समय मेरे पिता तनिक क्रोध करके हँसते थे और उससे उनकी भौंहें थोड़ी टेढ़ी हो जाती थीं, तब उन स्वर्ग की सम्पत्तियों के लिये कहीं ठिकाना नहीं रह जाता था, वे लुटती फिरती थीं। किन्तु आपने मेरे उन पिता को भी मार डाला। इसलिये मैं ब्रह्मलोक की आयु, लक्ष्मी, ऐश्वर्य और वे इन्द्रिय भोग, जिन्हें संसार के प्राणी चाहा करते हैं, नहीं चाहता; क्योंकि मैं जानता हूँ कि अत्यन्त शक्तिशाली काल का रूप धारण करके आपने उन्हें ग्रस रखा है। इसलिये मुझे आप अपने दासों की सन्निधि में ले चलिये।

विषय भोग की बातें सुनने में ही अच्छी लगती हैं, वास्तव में मृगतृष्णा के जल के समान नितान्त असत्य हैं और यह शरीर भी, जिससे वे भोग भोगे जाते हैं, अगणित रोगों का उद्गम स्थान है। कहाँ वे मिथ्या विषय भोग और कहाँ यह रोगयुक्त शरीर। इन दोनों की क्षणभंगुरता और असारता जानकर भी मनुष्य इनसे विरक्त नहीं होता। वह कठिनाई से प्राप्त होने वाले भोग के नन्हे-नन्हें मधुविन्दुओं से अपनी कामना की आग बुझाने की चेष्टा करता है।

प्रभो! कहाँ तो इस तमोगुणी असुर वंश में रजोगुण से उत्पन्न हुआ मैं, और कहाँ आपकी अनन्त कृपा! धन्य है! आपने अपना परम प्रसादस्वरूप और सकल सन्तापहारी वह करकमल मेरे सिर पर रखा है, जिसे आपने ब्रह्मा, शंकर और लक्ष्मी के सिर पर कभी नहीं रखा। दूसरे संसारी जीवों के समान आपमें छोटे-बड़े का भेदभाव नहीं है; क्योंकि आप सबके आत्मा और अकारण प्रेमी हैं। फिर भी कल्पवृक्ष के समान आपका कृपा-प्रसाद भी सेवन-भजन से ही प्राप्त होता है। सेवा के अनुसार ही जीवों पर आपकी कृपा का उदय होता है, उसमें जातिगत उच्चता या नीचता कारण नहीं है। भगवन्! यह संसार एक ऐसा अँधेरा कुआँ है, जिसमें कालरूप सर्प डँसने के लिये सदा तैयार रहता है। विषय-भोगों की इच्छा वाले पुरुष उसी में गिरे हुए हैं। मैं भी संगवश उसके पीछे उसी में गिरने जा रहा था। परन्तु भगवन्! देवर्षि नारद ने मुझे अपनाकर बचा लिया। तब भला, मैं आपके भक्तजनों की सेवा कैसे छोड़ सकता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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