श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 32-42

सप्तम स्कन्ध: सप्तमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 32-42 का हिन्दी अनुवाद


सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि समस्त प्राणियों में विराजमान हैं-ऐसी भावना से यथाशक्ति सभी प्राणियों की इच्छा पूर्ण करे और हृदय से उनका सम्मान करे। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर-इन छः शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके जो लोग इस प्रकार भगवान् की साधन-भक्ति का अनुष्ठान करते हैं, उन्हें उस भक्ति के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य प्रेम की प्राप्ति हो जाती है।

जब भगवान् के लीला शरीरों से किये हुए अद्भुत पराक्रम, उनके अनुपम गुण और चरित्रों को श्रवण करके अत्यन्त आनन्द के उद्रेक से मनुष्य का रोम-रोम खिल उठता है, आँसुओं के मारे कण्ठ गद्गद हो जाता है और वह संकोच छोड़कर जोर-जोर से गाने-चिल्लाने और नाचने लगता है; जिस समय वह ग्रहग्रस्त पागल की तरह कभी हँसता है, कभी करुण-क्रन्दन करने लगता है, कभी ध्यान करता है तो कभी भगवद्भाव से लोगों की वन्दना करने लगता है; जब वह भगवान् में ही तन्मय हो जाता है, बार-बार लंबी साँस खींचता है और संकोच छोड़कर ‘हरे! जगत्पते!! नारायण’!! कहकर पुकारने लगता है-तब भक्तियोग के महान् प्रभाव से उसके सारे बन्धन कट जाते हैं और भगवद्भाव की ही भावना करते-करते उसका हृदय भी तदाकार-भगवन्मय हो जाता है। उस समय उसके जन्म-मृत्यु के बीजों का खजाना ही जल जाता है और वह पुरुष श्रीभगवान् को प्राप्त कर लेता है।

इस अशुभ संसार के दलदल में फँसकर अशुभमय हो जाने वाले जीव के लिये भगवान् की यह प्राप्ति संसार के चक्कर को मिटा देने वाली है। इसी वस्तु को कोई विद्वान् ब्रह्म और कोई निर्वाण-सुख के रूप में पहचानते हैं। इसलिये मित्रो! तुम लोग अपने-अपने हृदय में हृदयेश्वर भगवान् का भजन करो।

असुरकुमारो! अपने हृदय में ही आकाश के समान नित्य विराजमान भगवान् का भजन करने में कौन-सा विशेष परिश्रम है। वे समान रूप से समस्त प्राणियों के अत्यन्त प्रेमी मित्र हैं; और तो क्या, अपने आत्मा ही हैं। उनको छोड़कर भोग सामग्री इकट्ठी करने के लिये भटकना-राम! राम! कितनी मूर्खता है। अरे भाई! धन, स्त्री, पशु, पुत्र, पुत्री, महल, पृथ्वी, हाथी, खजाना और भाँति-भाँति की विभूतियाँ-और तो क्या, संसार का समस्त धन तथा भोग सामग्रियाँ इस क्षणभंगुर मनुष्य को क्या सुख दे सकती हैं। वे स्वयं ही क्षणभंगुर हैं। जैसे इस लोक की सम्पत्ति प्रत्यक्ष ही नाशवान् है, वैसे ही यज्ञों से प्राप्त होने वाले स्वर्गादि लोक भी नाशवान् और आपेक्षिक-एक-दूसरे से छोटे-बड़े, नीचे-ऊँचे हैं। इसलिये वे भी निर्दोष नहीं हैं। निर्दोष हैं केवल परमात्मा। न किसी ने उनमें दोष देखा है और न सुना है; अतः परमात्मा की प्राप्ति के लिये अनन्य भक्ति से उन्हीं परमेश्वर का भजन करना चाहिये।

इसके सिवा अपने को बड़ा विद्वान् मानने वाला पुरुष इस लोक में जिस उद्देश्य से बार-बार बहुत-से कर्म करता है, उस उद्देश्य की प्रप्ति तो दूर रही-उलटा उसे उसके विपरीत ही फल मिलता है और निस्सदेह मिलता है। कर्म में प्रवृत्त होने के दो ही उद्देश्य होते हैं-सुख पाना और दुःख से छूटना। परन्तु जो पहले कामना न होने के कारण सुख में निमग्न रहता था, उसे ही अब कामना के कारण यहाँ सदा-सर्वदा दुःख ही भोगना पड़ता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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