श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 13-24

सप्तम स्कन्ध: षष्ठोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद


जो जननेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय के सुखों को ही सर्वस्व मान बैठा है, जिसकी भोगवासनाएँ कभी तृप्त नहीं होतीं, जो लोभवश कर्म-पर-कर्म करता हुआ रेशम के कीड़े की तरह अपने को और भी कड़े बन्धन में जकड़ता जा रहा है और जिसके मोह की कोई सीमा नहीं है- वह उनसे किस प्रकार विरक्त हो सकता है और कैसे उनका त्याग कर सकता है। यह मेरा कुटुम्ब है, इस भाव से उसमें वह इतना रम जाता है कि उसी के पालन-पोषण के लिये अपनी अमूल्य आयु को गवाँ देता है और उसे यह भी नहीं जान पड़ता कि मेरे जीवन का वास्तविक उद्देश्य नष्ट हो रहा है। भला, इस प्रमाद की भी कोई सीमा है। यदि इन कामों में कुछ सुख मिले तो भी एक बात है; परन्तु यहाँ तो जहाँ-जहाँ वह जाता है, वहीं-वहीं दैहिक, दैविक और भौतिक ताप उसके हृदय को जलाते ही रहते हैं। फिर भी वैराग्य का उदय नहीं होता। कितनी विडम्बना है। कुटुम्ब की ममता के फेर में पड़कर वह इतना असावधान हो जाता है, उसका मन धन के चिन्तन में सदा इतना लवलीन रहता है कि वह दूसरे का धन चुराने के लौकिक-पारलौकिक दोषों को जानता हुआ भी कामनाओं को वश में न कर सकने के कारण इन्द्रियों के भोग की लालसा से चोरी कर ही बैठता है।

भाइयों! जो इस प्रकार अपने कुटुम्बियों के पेट पालने में ही लगा रहता है- कभी भगवद्भजन नहीं करता- वह विद्वान् हो, तो भी उसे परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि अपने-पराये का भेद-भाव रहने के कारण उसे भी अज्ञानियों के समान ही तमःप्रधान गति प्राप्त होती है। जो कामिनियों के मनोरंजन का सामान- उनका क्रीड़ामृग बन रहा है और जिसने अपने पैरों में सन्तान की बेड़ी जकड़ ली है, वह बेचारा गरीब-चाहे कोई भी हो, कहीं भी हो- किसी भी प्रकार से अपना उद्धार नहीं कर सकता। इसलिये भाइयों! तुम लोग विषयासक्त दैत्यों का संग दूर से ही छोड़ दो और आदिदेव भगवान् नारायण की शरण ग्रहण करो। क्योंकि जिन्होंने संसार की आसक्ति छोड़ दी है, उन महात्माओं के वे ही परम प्रियतम और परम गति हैं।

मित्रो! भगवान् को प्रसन्न करने के लिये कोई बहुत परिश्रम या प्रयत्न नहीं करना पड़ता। क्योंकि वे समस्त प्राणियों के आत्मा हैं और सर्वत्र सबकी सत्ता के रूप में स्वयं सिद्ध वस्तु हैं। ब्रह्मा से लेकर तिनके तक छोड़े-बड़े समस्त प्राणियों में, पंचभूतों से बनी हुई वस्तुओं में, पंचभूतों में, सूक्ष्म तन्मात्राओं में, महत्तत्त्व में, तीनों गुणों में और गुणों की साम्यावस्था प्रकृति में एक ही अविनाशी परमात्मा विराजमान हैं। वे ही समस्त सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्यों की खान हैं। वे ही अन्तर्यामी द्रष्टा के रूप में हैं और वे ही दृश्य जगत् के रूप में भी हैं। सर्वथा अनिर्वचनीय तथा विकल्परहित होने पर द्रष्टा और दृश्य, व्याप्य और व्यापक के रूप में उनका निर्वचन किया जाता है। वस्तुतः उनमें एक भी विकल्प नहीं है। वे केवल अनुभवस्वरूप, आनन्दस्वरूप एकमात्र परमेश्वर ही हैं। गुणमयी सृष्टि करने वाली माया के द्वारा ही उनका ऐश्वर्य छिप रहा है। इसके निवृत्त होते ही उनके दर्शन हो जाते हैं। इसलिये तुम लोग अपने दैत्यपने का, आसुरी सम्पत्ति का त्याग करके समस्त प्राणियों पर दया करो। प्रेम से उनकी भलाई करो। इसी से भगवान् प्रसन्न होते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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