श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 12 श्लोक 16-31

सप्तम स्कन्ध: द्वादशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद


इस प्रकार आचरण करने वाला ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, संन्यासी अथवा गृहस्थ विज्ञान सम्पन्न होकर परब्रह्मतत्त्व का अनुभव प्राप्त कर लेता है।

अब मैं ऋषियों के मतानुसार वानप्रस्थ-आश्रम के नियम बतलाता हूँ। इनका आचरण करने से वानप्रस्थ-आश्रमी को अनायास ही ऋषियों के लोक महर्लोक की प्राप्ति हो जाती है।

वानप्रस्थ-आश्रमी को जोती हुई भूमि में उत्पन्न होने वाले चावल, गेंहूँ आदि अन्न नहीं खाने चाहिये। बिना जोते पैदा हुआ अन्न भी यदि असमय में पका हो, तो उसे भी न खाना चाहिये। आग से पकाया हुआ या कच्चा अन्न भी न खाये। केवल सूर्य के ताप से पके हुए कन्द, मूल, फल आदि का ही सेवन करे। जंगलों में अपने-आप पैदा हुए धान्यों से नित्य-नैमित्तिक चरु और पुरोडाश का हवन करे। जब नये-नये अन्न, फल, फूल आदि मिलने लगें, तब पहले से इकट्ठे किये हुए अन्न का परित्याग कर दे। अग्निहोत्र के अग्नि की रक्षा के लिये ही घर, पर्णकुटी अथवा पहाड़ की गुफा का आश्रय ले। स्वयं शीत, वायु, अग्नि, वर्षा और घाम को सहन करे। सिर पर जटा धारण करे और केश, रोम, नख एवं दाढ़ी-मूँछ न कटवाये तथा मैल को भी शरीर से अलग न करे। कमण्डलु, मृगचर्म, दण्ड, वल्कल-वस्त्र और अग्निहोत्र की सामग्रियों को अपने पास रखे।

विचारवान् पुरुष को चाहिये कि बारह, आठ, चार, दो या एक वर्ष तक वानप्रस्थ-आश्रम के नियनों का पालन करे। ध्यान रहे कि कहीं अधिक तपस्या का क्लेश सहन करने से बुद्धि बिगड़ न जाये। वानप्रस्थी पुरुष जब रोग अथवा बुढ़ापे के कारण अपने कर्म पूरे न कर सके और वेदान्त-विचार करने की भी सामर्थ्य न रहे, तब उसे अनशन आदि व्रत करने चाहिये। अनशन के पूर्व ही वह अपने आह्वनीय आदि अग्नियों को अपनी आत्मा में लीन कर ले। ‘मैंपन’ और ‘मेरेपन’ का त्याग करके शरीर को उसके कारणभूत तत्त्वों में यथा योग्य भलीभाँति लीन करे।

जितेन्द्रिय पुरुष अपने शरीर के छिद्राकाशों को आकाश में, प्राणों को वायु में, गरमी को अग्नि में, रक्त, कफ, पीब आदि जलीय तत्त्वों को जल और हड्डी आदि ठोस वस्तुओं को पृथ्वी में लीन करे। इसी प्रकार वाणी और उसके कर्म भाषण को उसके अधिष्ठातृ देवता अग्नि में, हाथ और उसके द्वारा होने वाले कला-कौशल को इन्द्र में, चरण और उसकी गति को काल स्वरूप विष्णु में, रति और उपस्थ को प्रजापति में एवं पायु और मलोत्सर्ग को उनके आश्रय के अनुसार मृत्यु में लीन कर दे। श्रोत और उसके द्वारा सुने जाने वाले शब्द को दिशाओं में, स्पर्श और त्वचा को वायु में, नेत्र सहित रूप को ज्योति में, मधुर आदि रस के सहित[1] रसनेन्द्रिय को जल में और युधिष्ठिर! घ्राणेन्द्रिय एवं उसके द्वारा सूँघे जाने वाले गन्ध को पृथ्वी में लीन कर दे।

मनोरथों के साथ मन को चन्द्रमा में, समझ में आने वाले पदार्थों के सहित बुद्धि को ब्रह्मा में तथा अहंता और ममतारूप क्रिया करने वाले अहंकार को उसके कर्मों के साथ रुद्र में लीन कर दे। इसी प्रकार चेतना-सहित चित्त को क्षेत्रज्ञ (जीव) में और गुणों के कारण विकारी-से प्रतीत होने वाले जीव को परब्रह्म में लीन कर दे। साथ ही पृथ्वी का जल में, जल का अग्नि में, अग्नि का वायु में, वायु का आकाश में, आकाश का अहंकार में, अहंकार का महत्तत्त्व में, महत्तत्त्व का अव्यक्त में और अव्यक्त का अविनाशी परमात्मा में लय कर दे। इस प्रकार अविनाशी परमात्मा के रूप में अवशिष्ट जो चिद्वस्तु है, वह आत्मा है, वह मैं हूँ-यह जानकर अद्वितीय भाव में स्थित हो जाये। जैसे अपने आश्रय काष्ठादि के भस्म हो जाने पर अग्नि शान्त होकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है, वैसे ही वह भी उपरत हो जाये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यहाँ मूल में ‘प्रचेतसा’ पद है, जिसका अर्थ ‘वरुण के सहित’ होता है। वरुण रसनेन्द्रिय के अधिष्ठाता हैं। श्रीधर-स्वामी ने भी इसी मत को स्वीकार किया है। परन्तु इस प्रसंग में सर्वत्र इन्द्रिय और उसके विषय का अधिष्ठातृदेव में लय करना बताया गया है, फिर रसनेन्द्रिय के लिये ही नया क्रम युक्तियुक्त नहीं जँचता। इसलिये यहाँ श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती के मतानुसार ‘प्रचेतसा’ पद का (‘प्रकृष्टं चेतो यत्र स प्रचेतो मधुरादिरसस्तेन’-जिसकी ओर चित्त अधिक आकृष्ट हो, वह मधुरादि रस ‘प्रचेतस’ है, उसके सहित) इस विग्रह के अनुसार प्रस्तुत अर्थ किया गया है और यही युक्तियुक्त मालूम होता है।

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