षष्ठ स्कन्ध: द्वितीय अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 20-36 का हिन्दी अनुवाद
प्रिय परीक्षित! पार्षदों की यह बात सुनकर यमदूत यमराज के पास गये और उन्हें यह सारा वृतान्त ज्यों-का-त्यों सुना दिया। अजालिम यमदूतों के फंदे से छूटकर निर्भय और स्वस्थ हो गया। उसने भगवान् के पार्षदों के दर्शनजनित आनन्द में मग्न होकर उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया। निष्पाप परीक्षित! भगवान् के पार्षदों ने देखा कि अजामिल कुछ कहना चाहता है, तब वे सहसा उसके सामने ही वहीं अन्तर्धान हो गये। इस अवसर पर अजामिल ने भगवान् के पार्षदों से विशुद्ध भागवत-धर्म और यमदूतों के मुख से वेदोक्त सगुण (प्रवृत्ति विषयक) धर्म का श्रवण किया था। सर्वपापहारी भगवान् की महिमा सुनने से अजामिल के हृदय में शीघ्र ही भक्ति का उदय हो गया। अब उसे अपने पापों को याद करके बड़ा पश्चाताप होने लगा। (अजामिल मन-ही-मन सोचने लगा-) ‘अरे, मैं कैसा इन्द्रियों का दास हूँ। मैंने एक दासी के गर्भ से पुत्र उत्पन्न करके अपना ब्राह्मणत्व नष्ट कर दिया। यह बड़े दुःख की बात है। धिक्कार है! मुझे बार-बार धिक्कार है! मैं संतों के द्वारा निन्दित हूँ, पापात्मा हूँ! मैंने अपने कुल में कलंक का टीका लगा दिया। हाय-हाय, मैंने अपनी सती एवं अबोध पत्नी का परित्याग कर दिया और शराब पीने वाली कुलटा का संसर्ग किया। मैं कितना नीच हूँ! मेरे माँ-बाप बूढ़े और तपस्वी थे। वे सर्वथा असहाय थे, उनकी सेवा-शुश्रूषा करने वाला और कोई नहीं था। मैंने उनका भी परित्याग कर दिया। ओह! मैं कितना कृतघ्न हूँ। मैं अब अवश्य ही अत्यन्त भयावने नरक में गिरूँगा, जिसमें गिरकर धर्मघाती पापात्मा कामी पुरुष अनेकों प्रकार की यमयातना भोगते हैं। मैंने अभी जो अद्भुत दृश्य देखा, क्या वह स्वप्न है? अथवा जाग्रत् अवस्था का ही प्रत्यक्ष अनुभव है? अभी-अभी जो हाथों में फंदा लेकर मुझे खींच रहे थे, वे कहाँ चले गये? अभी-अभी वे मुझे अपने फंदों में फँसाकर पृथ्वी के नीचे ले जा रहे थे, परन्तु चार अत्यन्त सुन्दर सिद्धों ने आकर मुझे छुड़ा लिया। वे अब कहाँ चले गये। यद्यपि मैं इस जन्म का महापापी हूँ, फिर भी मैंने पूर्वजन्मों में अवश्य ही शुभ कर्म किये होंगे; तभी तो मुझे इन श्रेष्ठ देवताओं के दर्शन हुए। उनकी स्मृति से मेरा हृदय अब भी आनन्द से भर रहा है। मैं कुलटागामी और अत्यन्त अपवित्र हूँ। यदि पूर्वजन्म में मैंने पुण्य न किये होते, तो मरने के समय मेरी जीभ भगवान् के मनोमोहक नाम का उच्चारण कैसे कर पाती? कहाँ तो मैं महाकपटी, पापी, निर्लज्ज और ब्रह्मतेज को नष्ट करने वाला तथा कहाँ भगवान् का वह परम मंगलमय ‘नारायण’ नाम! (सचमुच मैं तो कृतार्थ हो गया)। अब मैं अपने मन, इन्द्रिय और प्राणों को वश में करके ऐसा प्रयत्न करूँगा कि फिर अपने को घोर अन्धकारमय नरक में न डालूँ। अज्ञानवश मैंने अपने को शरीर समझकर उसके लिये बड़ी-बड़ी कामनाएँ कीं और उनकी पूर्ति के लिये अनेकों कर्म किये। उन्हीं का फल है यह बन्धन। अब मैं इसे काटकर समस्त प्राणियों का हित करूँगा, वासनाओं को शान्त कर दूँगा, सबसे मित्रता का व्यवहार करूँगा, दुःखियों पर दया करूँगा और पूरे संयम के साथ रहूँगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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