श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 17-28

षष्ठ स्कन्ध:पञ्चदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद


महर्षि अंगिरा ने कहा- राजन्! जिस समय तुम पुत्र के लिये बहुत लालायित थे, तब मैंने ही तुम्हें पुत्र दिया था। मैं अंगिरा हूँ। ये जो तुम्हारे सामने खड़े हैं, स्वयं ब्रह्मा जी के पुत्र सर्वसमर्थ देवर्षि नारद हैं। जब हम लोगों ने देखा कि तुम पुत्र शोक के कारण बहुत ही घने अज्ञानान्धकार में डूब रहे हो, तब सोचा कि तुम भगवान् के भक्त हो, शोक करने योग्य नहीं हो। अतः तुम पर अनुग्रह करने के लिये ही हम दोनों यहाँ आये हैं।

राजन्! सच्ची बात तो यह है कि जो भगवान् और ब्राह्मणों का भक्त है, उसे किसी अवस्था में शोक नहीं करना चाहिये। जिस समय पहले-पहल मैं तुम्हारे घर आया था, उसी समय मैं तुम्हें परमज्ञान का उपदेश देता; परन्तु मैंने देखा कि अभी जो तुम्हारे हृदय में पुत्र की उत्कट लालसा है, इसलिये उस समय तुम्हें ज्ञान न देकर मैंने पुत्र ही दिया। अब तुम स्वयं अनुभव कर रहे हो कि पुत्रवानों को कितना दुःख होता है। यही बात स्त्री, घर, धन, विविध प्रकार के ऐश्वर्य, सम्पत्तियाँ, शब्द-रूप-रस आदि विषय, राज्यवैभव, पृथ्वी, राज्य, सेना, खजाना, सेवक, अमात्य, सगे-सम्बन्धी, इष्ट-मित्र सबके लिये हैं; क्योंकि ये सब-के-सब अनित्य हैं।

शूरसेन! अतएव ये सभी शोक, मोह, भय और दुःख के कारण हैं, मन के खेल-खिलौने हैं, सर्वथा कल्पित और मिथ्या हैं; क्योंकि ये न होने पर भी दिखायी पड़ रहे हैं। यही कारण है कि ये एक क्षण दीखने पर भी दूसरे क्षण लुप्त हो जाते हैं। ये गन्धर्व नगर, स्वप्न, जादू और मनोरथ की वस्तुओं के समान सर्वथा असत्य हैं। जो लोग कर्म-वासनाओं से प्रेरित होकर विषयों का चिन्तन करते रहते हैं; उन्हीं का मन अकेल प्रकार के कर्मों की सृष्टि करता है। जीवात्मा का यह देह-जो पंचभूत, ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों का संघात है-जीव को विविध प्रकार के क्लेश और सन्ताप देने वाली कही जाती है। इसलिये तुम अपने मन को विषयों में भटकने से रोककर शान्त करो, स्वस्थ करो और फिर उस मन के द्वारा अपने वास्तविक स्वरूप का विचार करो तथा इस द्वैत-भ्रम से नित्यत्व की बुद्धि छोड़कर परमशान्तिस्वरूप परमात्मा में स्थित हो जाओ।

देवर्षि नारद ने कहा- राजन्! तुम एकाग्रचित्त से मुझसे यह मन्त्रोपनिषद् ग्रहण करो। इसे धारण करने से सात रात में ही तुम्हें भगवान् संकर्षण का दर्शन होगा।

नरेन्द्र! प्राचीन काल में भगवान् शंकर आदि ने श्रीसंकर्षणदेव के ही चरणकमलों का आश्रय लिया था। इससे उन्होंने द्वैतभ्रम का परित्याग कर दिया और उनकी उस महिमा को प्राप्त हुए, जिससे बढ़कर तो कोई है ही नहीं, समान भी नहीं है। तुम भी बहुत शीघ्र ही भगवान् के उसी परम पद को प्राप्त कर लोगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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