श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 31-45

षष्ठ स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 31-45 का हिन्दी अनुवाद


राजन्! शूरसेन देश के राजा चित्रकेतु के तेज से कृतद्युति का गर्भ शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा के समान दिनोंदिन क्रमशः बढ़ने लगा।

तदनन्तर समय आने पर महारानी कृतद्युति के गर्भ से एक सुन्दर पुत्र का जन्म हुआ। उसके जन्म का समाचार पाकर शूरसेन देश की प्रजा बहुत ही आनन्दित हुई। सम्राट् चित्रकेतु के आनन्द का तो कहना ही क्या था। वे स्नान करके पवित्र हुए। फिर उन्होंने वस्त्राभूषणों से सुसज्जित हो, ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराकर और आशीर्वाद लेकर पुत्र का जातकर्म-संस्कार करवाया। उन्होंने उन ब्राह्मणों को सोना, चाँदी, वस्त्र, आभूषण, गाँव, घोड़े, हाथी और छः अर्बुद गौएँ दान कीं। उदारशिरोमणि राजा चित्रकेतु ने पुत्र के धन, यश और आयु की वृद्धि के लिये दूसरे लोगों को भी मुँहमाँगी वस्तुएँ दीं-ठीक उसी प्रकार जैसे मेघ सभी जीवों का मनोरथ पूर्ण करता है।

परीक्षित! जैसे यदि किसी कंगाल को बड़ी कठिनाई से कुछ धन मिल जाता है तो उसमें उसकी आसक्ति हो जाती है, वैसे ही बहुत कठिनाई से प्राप्त हुए उस पुत्र में राजर्षि चित्रकेतु का स्नेहबन्धन दिनोंदिन दृढ़ होने लगा। माता कृतद्युति को भी अपने पुत्र पर मोह के कारण बहुत ही स्नेह था। परन्तु उनकी सौत रानियों के मन में पुत्र की कामना से और भी जलन होने लगी। प्रतिदिन बालक का लाड़-प्यार करते रहने के कारण सम्राट् चित्रकेतु का जितना प्रेम बच्चे की माँ कृतद्युति में था, उतना दूसरी रानियों में न रहा। इस प्रकार एक तो वे रानियाँ सन्तान न होने के कारण ही दुःखी थीं, दूसरे राजा चित्रकेतु ने उनकी उपेक्षा कर दी। अतः वे डाह से अपने को धिक्कारने और मन-ही-मन जलने लगीं।

वे आपस में कहने लगीं- ‘अरी बहिनों! पुत्रहीन स्त्री बहुत ही अभागिनी होती है। पुत्र वाली सौतें तो दासी के समान उसका तिरस्कार करती हैं। और तो और, स्वयं पतिदेव ही उसे पत्नी करके नहीं मानते। सचमुच पुत्रहीन स्त्री धिक्कार के योग्य है। भला, दासियों को क्या दुःख है? वे तो अपने स्वामी की सेवा करके निरन्तर सम्मान पाती रहती हैं। परन्तु हम अभागिनी तो इस समय उनसे भी गयी-बीती हो रही हैं और दासियों की दासी के समान बार-बार तिरस्कार पा रही हैं।

परीक्षित! इस प्रकार वे रानियाँ अपनी सौत की गोद भरी देखकर जलती रहती थीं और राजा भी उनकी ओर से उदासीन हो गये थे। फलतः उनके मन में कृतद्युति के प्रति बहुत द्वेष हो गया। द्वेष के कारण रानियों की बुद्धि मारी गयी। उनके चित्त में क्रूरता छा गयी। उन्हें अपने पति चित्रकेतु का पुत्र-स्नेह सहन न हुआ। इसलिये उन्होंने चिढ़कर नन्हे से राजकुमार को विष दे दिया। महारानी कृतद्युति को सौतों की इस घोर पापमयी करतूत का कुछ भी पता न था। उन्होंने दूर से देखकर समझ लिया कि बच्चा सो रहा है। इसलिये वे महल में इधर-उधर डोलती रहीं। बुद्धिमती रानी ने यह देखकर कि बच्चा बहुत देर से सो रहा है, धाय से कहा- ‘कल्याणि! मेरे लाल को ले आ’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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