श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 32-45

प्रथम स्कन्ध: तृतीय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः तृतीय अध्यायः श्लोक 32-45 का हिन्दी अनुवाद


इस स्थूल रूप से परे भगवान का एक सूक्ष्म अव्यक्त रूप है- जो न तो स्थूल की तरह आकारादि गुणों वाला है और न देखने, सुनने में ही आ सकता है; वही सूक्ष्म शरीर है। आत्मा का आरोप या प्रवेश होने से यही जीव कहलाता है और इसी का बार-बार जन्म होता है।

उपर्युक्त सूक्ष्म और स्थूल शरीर अविद्या से ही आत्मा में आरोपित हैं। जिस अवस्था में आत्मस्वरूप के ज्ञान से यह आरोप दूर हो जाता है, उसी समय ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। तत्त्वज्ञानी लोग जानते हैं कि जिस समय यह बुद्धिरूपा परमेश्वर की माया निवृत्त हो जाती है, उस समय जीव परमानन्दमय हो जाता है और अपनी स्वरूप-महिमा में प्रतिष्ठित होता है। वास्तव में जिनके जन्म नहीं हैं और कर्म भी नहीं हैं, उन हृदयेश्वर भगवान के अप्राकृत जन्म और कर्मों का तत्त्वज्ञानी लोग इसी प्रकार वर्णन करते हैं; क्योंकि उनके जन्म और कर्म वेदों के अत्यन्त गोपनीय रहस्य हैं।

भगवान की लीला अमोघ है। वे लीला से ही इस संसार का सृजन, पालन और संहार करते हैं, किंतु इसमें आसक्त नहीं होते। प्राणियों के अन्तःकरण में छिपे रहकर ज्ञानेन्द्रिय और मन के नियन्ता के रूप में उनके विषयों को ग्रहण भी करते हैं, परंतु उनसे अलग रहते हैं, वे परम स्वतन्त्र हैं- ये विषय कभी उन्हें लिप्त नहीं कर सकते। जैसे अनजान मनुष्य जादूगर अथवा नट के संकल्प और वचनों से की हुई करामात को नहीं समझ पाता, वैसे ही अपने संकल्प और वेदवाणी के द्वारा भगवान के प्रकट किये हुए इन नाना नाम और रूपों को तथा उनकी लीलाओं को कुबुद्धि जीव बहुत-सी तर्क-युक्तियों के द्वारा नहीं पहचान सकता। चक्रपाणि भगवान की शक्ति औरर पराक्रम अनन्त है- उनकी कोई थाह नहीं पा सकता। वे सारे जगत् के निर्माता होने पर भी उससे सर्वथा परे हैं। उनके स्वरूप को अथवा उनकी लीला के रहस्य को वही जान सकता है, जो नित्य-निरन्तर निष्कपट भाव से उनके चरणकमलों की दिव्य गन्ध का सेवन करता है- सेवा भाव से उनके चरणों का चिन्तन करता रहता है।

शौनकादि ऋषियों! आप लोग बड़े ही सौभाग्यशाली तथा धन्य हैं जो इस जीवन में और विघ्न-बाधाओं से भरे इस संसार में समस्त लोकों के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण से वह सर्वात्मक आत्मभाव, वह अनिर्वचनीय अनन्य प्रेम करते हैं, जिससे फिर इस जन्म-मरण रूप संसार के भयंकर चक्र में नहीं पड़ना होता।

भगवान वेदव्यास ने यह वेदों के समान भगवच्चरित्र से परिपूर्ण भागवत नाम का पुराण बनाया है। उन्होंने इस श्लाघनीय, कल्याणकारी और महान् पुराण को लोगों के परम कल्याण के लिये अपने आत्मज्ञान शिरोमणि पुत्र को ग्रहण कराया। इसमें सारे वेद और इतिहासों का सार-सार संग्रह किया गया है। शुकदेव जी ने राजा परीक्षित् को यह सुनाया। उस समय वे परमर्षियों से घिरे हुए आमरण अनशन का व्रत लेकर गंगा तट पर बैठे हुए थे। भगवान श्रीकृष्ण जब धर्म, ज्ञान आदि के साथ अपने परम धाम को पधार गये, तब इस कलियुग में जो लोग अज्ञानरूपी अन्धकार से अंधे हो रहे हैं, उनके लिये यह पुराणरूपी सूर्य इस समय प्रकट हुआ है। शौनकादि ऋषियों! जब महातेजस्वी श्रीशुकदेव जी महाराज वहाँ इस पुराण की कथा कह रहे थे, तब मैं भी वहाँ बैठा था। वहीं मैंने उनकी कृपापूर्ण अनुमति से इसका अध्ययन किया। मेरा जैसा अध्ययन है और मेरी बुद्धि ने जितना जिस प्रकार ग्रहण किया है, उसी के अनुसार इसे मैं आप लोगों को सुनाउँगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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