श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 31-45

प्रथम स्कन्ध: त्रयोदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः त्रयोदश अध्यायः श्लोक 31-45 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर ने उद्विग्नचित्त होकर वहीं बैठे हुए संजय से पूछा- ‘संजय! मेरे वे वृद्ध और नेत्रहीन पिता धृतराष्ट्र कहाँ हैं? पुत्रशोक से पीड़ित दु:खिया माता गान्धारी और मेरे परम हितैषी चाचा विदुर जी कहाँ चले गये? ताऊजी अपने पुत्रों और बन्धु-बान्धवों के मारे जाने से दुःखी थे। मैं मन्दबुद्धि हूँ, कहीं मुझसे किसी अपराध की आशंका करके वे माता गान्धारी सहित गंगाजी में तो नहीं कूद पड़े। जब हमारे पिता पाण्डु की मृत्यु हो गयी थी और हम लोग नन्हें-नन्हें बच्चे थे, तब उन्हीं दोनों चाचाओं ने बड़े-बड़े दुःखों से हमें बचाया था। वे हम पर बड़ा ही प्रेम रखते थे। हाय! वे यहाँ से कहाँ चले गये?’

सूत जी कहते हैं- संजय अपने स्वामी धृतराष्ट्र को न पाकर कृपा और स्नेह की विकलता से अत्यन्त पीड़ित और विरहातुर हो रहे थे। वे युधिष्ठिर को कुछ उत्तर न दे सके। फिर धीरे-धीरे बुद्धि के द्वारा उन्होंने अपने चित्त को स्थिर किया, हाथों से आँखों के आसूँ पोंछे और अपने स्वामी धृतराष्ट्र के चरणों का स्मरण करते हुए युधिष्ठिर से कहा।

संजय बोले- कुलनन्दन! मुझे आपने दोनों चाचा और गान्धारी के संकल्प का कुछ भी पता नहीं है। महाबाहो! मुझे तो उन महात्माओं ने ठग लिया। संजय इस प्रकार कह ही रहे थे कि तुम्बुरु के साथ देवर्षि नारद जी वहाँ आ पहुँचे। महाराज युधिष्ठिर ने भाइयों सहित उठकर उन्हें प्रणाम किया और उनका सम्मान करते हुए बोले।

युधिष्ठिर ने कहा- ‘भगवन्! मुझे अपने दोनों चाचाओं का पता नहीं लग रहा है; न जाने वे दोनों और पुत्र-शोक से व्याकुल तपस्विनी माता गान्धारी यहाँ से कहाँ चले गये। भगवन्! अपार समुद्र में कर्णधार के समान आप ही हमारे पारदर्शक हैं।’

तब भगवान के परमभक्त भगवन्मय देवर्षि नारद ने कहा- ‘धर्मराज! तुम किसी के लिये शोक मत करो; क्योंकि यह सारा जगत् ईश्वर के वश में है। सारे लोक और लोकपाल विवश होकर ईश्वर की ही आज्ञा का पालन कर रहे हैं। वही एक प्राणी को दूसरे से मिलाता है और वही उन्हें अलग करता है। जैसे बैल बड़ी रस्सी में बँधे और छोटी रस्सी से रथे रहकर अपने स्वामी का भार ढोते हैं, उसी प्रकार मनुष्य भी वर्णाश्रमादि अनेक प्रकार के नामों से वेदरूप रस्सी में बँधकर ईश्वर की ही आज्ञा का अनुसरण करते हैं। जैसे संसार में खिलाड़ी की इच्छा से ही खिलौनों का संयोग और वियोग होता है, वैसे ही भगवान की इच्छा से मनुष्यों का मिलना-बिछुड़ना होता है। तुम लोगों को जीवरूप से नित्य मानो या देह रूप से अनित्य अथवा जड़ रूप से अनित्य और चेतन रूप से नित्य अथवा शुद्ध ब्रह्मरूप में नित्य-अनित्य कुछ भी न मानो-किसी भी अवस्था में मोहजन्य आसक्ति के अतिरिक्त वे शोक करने योग्य नहीं है। इसलिये धर्मराज! वे दीन-दुःखी चाचा-चाची असहाय अवस्था में मेरे बिना कैसे रहेंगे, इस अज्ञानजन्य मन की विकलता को छोड़ दो। यह पांच भौतिक शरीर काल, कर्म और गुणों के वश में है। अजगर के मुँह में पड़े हुए पुरुष के समान यह पराधीन शरीर दूसरों की रक्षा ही क्या कर सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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